रविवार, जनवरी 29, 2012

प्रीत : पांच चित्र

[*]प्रीत :कुछ चित्र  [*]


1.
झुकी
पलकें तुम्हारी
मुंद गई आंखें
उठी प्रीत
फैल गई !
2.
भाग कर
भीतर गई
लजा कर तुम
बाहर आई प्रीत
बेखोफ हो कर !


3.
मेरा नाम
रेत पर
उकेरा तुम ने
हवा आई
छू कर उसे
मुझ तक
प्रीत का
उठा गुब्बार !


4.
हवा ने
कहा कुछ
सपर्श में
प्रीत के पान
हुए पल्लवित
ठूंठ खिल उठा
हो गया हरा
जंगल महक गया !


5.
न सड़क चली
न तुम
दौड़ा मन वाहन
आया पड़ाव
'प्रीत'

दो हिन्दी कविताएं

*आज क्या लिखूं *


आज क्या लिखूं
बार बार सोचा
सोचना मुझे ही था
इस लिए वही सोचा
जो मुझे सोचना था 


जो सोचा
वह लिख नहीं पाया
और जो लिखा
वह सोच नहीं पाया
इस लिए फिर सोचा
क्यों सोचा ?


कुछ लोग
बिना सोचे
लिख रहे थे
लोग सोचते नहीं ।



मैंने सोचा तुम्हारा नाम
तुम ने कहा
क्योँ सोचा
उधर उन्होनें कहा
क्यों नहीं सोचा
हमारा नाम !


एक दिन
नत्थू भी उलझ गया
लिखते हो आप
लिख दो हमारा नाम
बी.पी.एल. में
या फिर लिख दो
कोरे भाग्य में
केवल तीन शब्द ;
रोटी-कपड़ा-मकान !


छोड़ दिया हम ने
उस दिन के बाद
सोच कर लिखना
लिख कर सोचना
तब से
मजे में हैं ।
 
 
*मेरे आंगन उतरेगा सूरज*


आज फिर निकला
शरद का चांद
मेरी छत पर
चांदनी में नहा गया
आज फिर मेरा आंगन !


घर की दीवारेँ
कांपने लगीं
आज फिर दौड़ कर
गया मैं छत पर
ढांपने खुली छत
चांद मुस्कुराया
लगा गिर ही जाएगा
बीच आंगन आज !


कांपती रूह
लरज़ते जिस्म
उतर ही आया
कल के सूरज को
अपने आंगन
उतरने का रास्ता दे !


दूर गगन में
टिमटिमाते तारे
हंसने लगे
उन्मुक्त हंसी
मानों खिलाखिला रहे हों
मासूम बच्चे
मदारी के आगे
नाचते नंगे बंदर को
देख कर बेबस !


सूरज भी आएगा
उसी मारग
जिस मारग आ
चांद भर देता है
रगों तक में ठंडापन
उन्हीं रगों मेँ कल
भर देगा आग
जब उतरेगा कल
सूरज मेरे आंगन !

दो हिन्दी कविताएं

*प्यासे सवाल*

आकाश अंतरिक्ष में
तना रहा
आगोश में लिए
अंगारो का पितामह
स्वछन्द हठी सूरज !


कभी उतर कर
नहीं आया
तपती धरा के पासंग
हमेशा पैदा किया भ्रम
बड़बोले जगत में ;
वो दूर छू रहा है
आकाश धरा को
चपल जगत ने
खींच भी ली
मनमानी क्षितिज रेखा
सुदूर अंतरिक्ष में
अपने ही सामर्थ्य से !


धरा मौन थी
मौन ही रही
उसकी जाई रेत
गई उड़ कर
अंतरिक्ष मेँ निष्कपट
हो भ्रमित लौट आई
सूरज के तपते मोहपाश से
आबद्ध हो कर
अब पड़ी है
साध कर अखूट मौन
जिस में कैद हैं
अथाह प्यासे सवाल !


*मौसम बदल गया*



आज अचानक
घर की मुंडेर से
आंगन में झांका सूरज ने
अलसाई भोर सिहर गई
ले कर अंगड़ाई
उठ चल पड़ा
नीरस दिन
छत मेँ सहतीर के
कोटर में दुबकी चिड़िया
पंख फड़फड़ा उड़ गई
मुक्त गगन में
कांपती रूह थम गई
मां के हाथों
मीठी गुड़ वाली
चाय थाम कर
तब जाना
मौसम बदल गया ।


मौसम का बदलना
जीवन का बदलना ही तो है
तभी तो
बदल जाती हैं
इच्छाएं-आशाएं
आकांक्षाएं-आवश्यकताएं
रोजमर्रा की ।


सर्द रात मेँ
गर्म आगोश
कहां रहती है
केवल बच्चों की चाहत
प्रोढ़ तन मन
लौटना चाहता है
अपने अतीत मेँ
मिलती नही
गर्म गोद मां की
मां की याद
बदलते मौसम की
दे ही जाती है संकेत !

दो हिन्दी कविताएं

*पंछी को सुन लो*

हिलती शाख
बैठा पंछी
धारे मौन
पंख पसारे
आंखें मूंद !


आंखों में
नापता गगन
विशालता नभ की
भीतर ही भीतर
करता अवलोकन
तोलता अपने पंख पसार !


आंखों में सपना
नीड़ हो अपना
नाप गगन को
उतरूं शाख
चल पहुंचू निज नीड़
जहां न हो आदम भीड़ ।


यक-ब-यक
उड़ चला
मन उसका
पाने नया आकाश
जिस में न हो
आदम आकांक्षाओं का
यांत्रिक धुंआं
न हो गंध बारुदी
हल्ला गुल्ला
शोर शराबा मनचला ।


हुआ अचानक
एक धमाका
नीरवता तोड़ गया
सुन धमाका
टूटी तंद्रा
खुल गई आंख
सपना टूट गया
पूछो तो जा कर
पंछी कितना टूट गया !
 
*मन के साथ *


हम चल पड़े थे
आकाश में
निकालने सुराख
बीच रास्ते
लॉट आए
जब बढ़ती गईं दूरियां
धरती ओ आकाश के बीच
ऊपर उठते तो
न लौट पाने का था डर
डर तो ये भी था
कि लौटने बाद
शायद न मिले धरती भी |


हम लौट ही आए
अपने भीतर
जहां बैठा है
हमारा कातर मन ।
हमें बहुत कहा गया
मारो मन को
हम से नहीं मरा
और फिर
मारें भी क्यों मन को
जो दे देता है रस
भयावह नीरसता में भी
ले जाता है पार
यंत्रणाओं के पार
जो घड़ी गई हैं
इस नश्वर जगत में
केवल हमारे लिए
इस लिए
हम जी लेते हैं
मन के साथ ।

एक बाल कविता





[] गांधी जी के तीन बंदर []



गांधी जी के तीन बंदर ।


रहते थे वो उनके अंदर।






बुरा किसी को कहा नहीं ।


बुरा किसी का सुना नहीं ।


बुरा किसी का सहा नहीं ।


सदा वो रहते मस्तकलंदर।


गांधी जी के तीन बंदर ।।






बुरे न बोले बोले कभी ।


जो बोले सो तोल सभी।


दिल की बातें खोल सभी।


प्रेम भाव के भरे समंदर ।


गांधी जी के तीन बंदर ।।






बुरा न देखा कभी किसी का ।


बुरा न समझा कभी किसी का ।


बुरा न सोचा कभी किसी का ।


राम रहीमा के पैगम्बर ।


गांधी जी के तीन बंदर ।।

[ यह कविता शिक्षा विभाग , राजस्थान ने
अपनी हालिया पुस्तक में प्रकाशित की है । ]

हिन्दी दोहे

*कुछ हिन्दी दोहे *




झपकी लेत गरीब तो, माया छीने चैन ।


भूखा सोता ठाट से , धाया जागे रैन ।1।


नेता सोता चैन से, ले वोटों की ओट ।


जनता खोले आंख तो , दे वोटों की चोट ।2।


नेता जीता वोट से,खूब छापता नोट ।


नेता खोले आंख तब ,जब जब घटते वोट ।3।


जनता पागल बावळी , भूली अपना जोर ।


खादी चोला पहन कर,नेता बन गए चोर ।4।


भारत जाये भाड़ में , नेता भोगे राज ।


नेता सोता चैन से,जनता ऊपर गाज ।5

दो हिन्दी कविताएं

*दर्द और आंसू*




न जाने कब से


क़ैद था सीने में


तुम्हें देख कर
वो दर्द मचल गया


बर्फ की गांठ सा जमा था


दिल में न जाने कब से


यादों की तपिश में


वो हिमखंड पिघल गया ।






कब रुका वो नादान


मेरी आंख में देर तलक


स्मृतियों मेँ झांक मचल गया


रूठ कर बच्चे की तरह


आंख के घर से निकल गया ।
 
 
*बच्चा बन जाएं*







आओ आज फिर


बच्चा बन जाएं


कुछ तोड़ें


कुछ फोड़ेँ


तोड़ फोड़ कर


फिर से जोड़ें


जुड़ जाए तो जुड़ जाए


नहीं जुड़े तो मचलें,रोएं !






सरदी की बरखा में


नम हुई मिट्टी को


पैरोँ पर थाप-थाप


एक एक घरोंदा बनाएं


अपने घरोंदें पर इतराएं


साथी का सुन्दर हो तो


तोड़ें और भाग जाएं


अपना टूटे तो रोएं चिल्लाएं


सुबक सुबक नाक पौंछते


अपने घर को जाएं ।






लगी ठंड पर


खाएं डांट अम्मा की


रूठें और कुछ ना खाएं


दादी के हाथों


पीएं दूध सूखे मेवे वाला


सो जाएं सुन कर


फिर झूठी कहानी


इक थे राजा रानी वाली ।






सब कुछ भूल भाल कर


उठें भोर में


लिपट अम्मां से


प्यार जताएं


नहा धो कर


करें नाश्ता


उठा कर बस्ता


निकलें घर सै


छेड़ छाड़ का फिर से


रच डालें इतिहास


टन-टन की घंटी भीतर जाएं


टन-टन की घंटी बाहर आएं


लौटें घर को धूल सने !






दादा दादी लाल कहे


अम्मा बोले राजा बेटा


बहिना छुटकी की गोदी


बड़की दीदी का मिले दुलार


आओ फिर से


बच्चे बन जाएं इकबार !

एक हिन्दी कविता

नीचे धरती ऊपर आसमान तो है ।



मिलती धूप छांव सबको समान तो है ।।


इस पर भी है पहरा किसी किसी घर में ।


देख लो कुदरत का भी अपमान तो है ।।

*सपना टूट गया*







रात छोटी थी


सपना था बड़ा


रात बीत गई


सपना टूट गया


टूटा सपना


फिर नहीं जुड़ा


ठीक वहीं से


जहां से टूट था


पहली रात के अंतिम पहर!






फिर नहीं आए


वे पात्र


जो थे साथ रात भर


उस सपने वाली रात में ।






वे दर और दीवार भी


नहीं आए लौट कर


जिन में रच दिया था


हम ने इतिहास


उस पहली रात ।






उस रुपहली रात में


कितना रोशन था


दूधिया चांद


बिखेरता मधुरस !






आज फिर जुटी


जुड़ी रात मेँ


कितना अलसाया सा है


बूढ़ी अम्मा के मुख सा


बेचारगी ओढ़े चांद !






अब तो


सपनों वाली


उस पहली रात के


सपने भी दूभर हैं


अब रातें बड़ी हैं


सपने बहुत छोटे


छोटे छोटे सपने


नींद तोड़ते हैं


रात नहीं


रात पड़ी रहती है शेष


अजगर सी पसरी


लिपटती हुई


हमारे इर्द गिर्द !

एक हिन्दी कविता

**मैं घायल ही ठीक हूं**



कोई आए


हमारा हाल चाल पूछे


स्वस्थ रहने के लिए


 दें शुभकामनाएं


इसके लिए


कितना जरूरी है


हमारा बीमार हो जाना


आज जाना !






आज


ज्यों ज्यों फैली खबर


मेरे घायल होने की


चले आए रिश्तेदार


दूर नजदीक के संबंधी भी


यार अणमुल्ले


नए पुराने


इसी बहाने


हुआ मिलना वर्षोँ बाद !






अब जाना


कितना अच्छा है


भीतर की बजाय


चोट का बाहर लगना


भीतर का दर्द दिखता नहीं


बंटता भी नहीं


होती नहीं दवा दारू


मरहम पट्टी


भीतर के घावों पर


झेलना पड़ता है ताउम्र


भीतर के जख्मों का दर्द !






इस लिए


बहुत रुचता है मुझे


बाहर का दर्द


जिसकी बदोलत


आ जाते हैं कुछ फल-फ्रूट


मुस्कुराते-गंधाते गुलदस्ते


जिन में दिखती है तस्वीरें


आने जानें वालों की


कुछ गुलदस्ते


आइना होते हैं


तभी तो कुछ के भीतर


कुछ का कुछ-कुछ


दिख ही जाता है दर्द


मेरे सुधरते स्वास्थ्य का !

एक हिन्दी कविता

*कविता जरूर लिखना*


उस ने


जाते जाते कहा था


मेरे लिए जरूर लिखना


एक कविता


जिस में हो प्रीत


गीत हरियाली के ।






सपने मत लिखना


जो न हो सकें पूरे


मेरे वाली कविता में


खुशहाली लिख देना


बिल्कुल सच वाली


जो दिखे दूर से


सभी के चेहरों पर


सूरज सी चमकती !






मेरे घर के सामने


लिख देना चौराहा


जिस पर कभी न लगें


धरना-पोस्टर


खड़ा कर ही देना


चाहे उस पर


बिना जेब वाला


टैफ्रिक का सिपाही !






संसद लिखो तो


लिखना बोलने वाली


बोल कर तोलने वाली


जिस में दिख जाए


मेरा पूरा गांव


उस तक जाती


सड़क जरूर लिखना !






मल्टीनेशनल कम्पनियां


पिज्जा-बर्गर-स्लाइस


चाहे कुछ भी लिख देना


मगर मेरे नत्थू के


तन भर कपड़ा


एक छत


दो जून रोटी


जरूर लिख देना


उसकी हारी-बीमारी टले


इसके लिए


दवा और दवाखान भी


लिख ही देना


उस मजदूरिन
जापायत गोमती के लिए


तीन महीने का


प्रसूती अवकाश भी


जरूर जरूर लिख देना !






फोज बैरकों में


बच्चे स्कूल में


युवा खेल में


अफसर ऑफिसों में


सत्य-ईमान मस्तिष्कों मेँ


नेताओं में देश प्रेम


इस बार जरूर लिखना !






अम्मां के लिए


आंख न सही


एक ऐनक जरूर लिखना


बेटों का प्यार भी


लिख ही देना


खींच खांच कर इस बार !






मैं लौटूं तब तक


फसल भी उगाते रहना


फलदार प्रीत की


जिसके बिरवे फैल जाएं


समूची धरा पर


मेरे घर के आगे से !

गज़ल

<>कागद तो कोरा था<>


अपना बना कर न जाने क्यों बहलातें हैं लोग ।


देकर कर जख्म न जाने क्यों सहलाते हैं लोग ।।


मां जाए हैं सभी लाए शक्ल अपनी उधार में ।


ला कर हम को क्यों आइना दिखाते हैं लोग ।।


पाक ही है दामन तमाम उनका कीचड़ में ।


इश्तिहार बांट कर रोज क्योँ जताते हैं लोग ।।


मजहब है इंसानों का जब इंसानियत ही ।


तो फिर क्यों इंसानी खून बहाते हैं लोग ।


कागद तो कोरा था लिखे जज़बात आपने ।


खुदा का लिखा फरमान क्यों बताते हैं लोग ।

एक हिन्दी कविता

<> बेटी का खत <>


नेट ओ मोबाइल के


इस शातिर युग में भी


खत आया है बेटी का


लिखी है बेटी ने


खत में गत अपनी ।






सच कहते थे पापा तुम ;


आती नहीं नींद


रात रात भर बिस्तर में


छत निहारूं


देखूं आंगन


आंखें पसरी जाती हैं


सोए बच्चे


दिखते बढ़ते


बढ़ते खर्चे


गली गली में


होते चर्चे


दिखता खर्च त्यौहारी का !






सास बुढ़ाई


ससुर मुहाने


घर में लगते


सब बतियाने


गंगा चलो


चलें नहाने


सोने की सीढ़ी चढ़ें बडेरे


हाथ खोल कर


बढ़ लो आगे


बोला पंड़ित लगा गुर्राने !






दामाद आपके


बैठे ठाले


खर्ची खूटे आते घर


घर मेँ घुसते लगता डर


काम धाम हाथ नहीं


आमद की कोई बात नहीं


ना झगड़ें हम


ऐसी कोई रात नहीं


दुख मत करना पापा तुम


वैसी ही हैं बातें सारी


जो तुम अम्मां से करते थे


नई तो कोई बात नहीं !






नाती आपका


आया खा कर फेरे


बैठा चौबारे दे कर डेरे


कोई कलमुहा आवारा


नातिन के देता फेरे


यही चिंता रहती घेरे


पापा पड़ी पार आपकी


मेरी मुश्किल लगती है


इस दुविधा में पापा


रात बैठ बैठ गुजरती है ।






संकट सारे


मेरे द्वारे


दौड़ दौड़ क्यों आते हैं


घर में


सोते सभी चैन से


आंसू मेरी आंख भिगोने


क्यों किनारे आते हैं ?


छोड़ो पापा क्या गिनाऊं


दुख वही तो सारे हैं


जिनको ढोते ढोते


तुमने दिन उम्र के गुजारे हैँ


जाओ छुप कर सो जाओ


तुम भी रो कर हो लो हलके


मैंने तो दो पाव उतारे हैं !

गज़ल

बुढ़ापा हुआ बीमारी


तूं जनमा मैं बलिहारी बेटा।


वो खुशियां अब मैं हारी बेटा ।।


छोड़ा घर देश गांव भी अपना ।


ऐसी भी क्या लाचारी बेटा ।।


ममता छोड़ क्या ओहदा पाया ।


हो गए बड़े तुम व्यपारी बेटा ।।


जोड़ जोड़ सपने महल बनाया ।


लगती नहीं अब बुहारी बेटा ।।


बिना सहारे अब पांव न उठते।


बुढ़ापा हुआ बीमारी बेटा ।।


दूर देश मेँ जो जाया पोता ।


सुनी न आंगन किलकारी बेटा ।।


बहू आती घर आंगन सजाती ।


सध जाती दुनियादारी बेटा ।।

एक हिन्दी कविता

<0>प्रीत<0>



आपके किसी श्रम की


पगार नहीं होती प्रीत ।






तुम हंसे


मैं हंसा


दोनों मुस्कुराए


चल भी लिए


साथ-साथ


बहुत दूर तलक


यूं साथ होने का


होती नहीं आधार प्रीत !






मैले को उजला


अंतिम को पहला


कह मानली बातें


कर दिया समर्पण


तन मन सारा


कह दिया


तूं जीता मैं हारा


होती नहीं जीत-हार प्रीत !






मन के बदले मन


दिल के बदले दिल


दे डाला


हम ने तुम ने


तुम ने मारा


अपना मन


मैंने मारा


अपना मन


ले लो


दे दो


होता नहीं व्यपार प्रीत !






प्रीत बसती


भीतर कोठे


न दिल में जाती


न छूती दिमाग


लग जाती है


लगाई न जाती


आग प्रीत की


सुनी-सुनाई ना जाती


बज जाती बिना साज


ऐसी होती प्रीत राग


न जाने कौन रचे


कोई न सृजनहार प्रीत ।






मीठी लगती


प्रीत की बातें


कड़वी भी लग जाती


बातें सारी गुजर जाती


छन छन आती


बहुत सुहाती


आती जब लौट


अपनी मरजी


करती फिर संचार प्रीत !

एक हिन्दी कविता

<0>थामें हम प्रभात<0>


नहा धो कर


आ बैठा सूरज


मेरे घर


छत की मुंडेर


करने बात


धरा से


हो गई प्रभात !






आओ


छोड़ें बिस्तर


हम भी बैठें


बीच चौपाल


करें बात की शुरुआत !






करेंगे बात


बात बनेगी


बिन बात


बढ़ेगी बात


बढ़ गई बात तो


नहीं बचेगी कहीं बात !






बढ़ गई धूप


छोड़ें सपने


ढूंढ़ें अपने


गढ़ें संसार


नया नवेला


आओ करेँ


अपनत्व का सूत्रपात !






तोड़ें कारा भ्रम की


करें साधना श्रम की


हक मांगें


हक से अपना


हक से लें हक


हक से दें हक


जग में बांटें


हक-हकीकत की सौगात !






झूठ को मारें


सच को तारें


कांडवती न हों


अपनी सरकारें


जन गण मन की


पूर्ण हो आस अधूरी


छूटें सब मजबूरी


अन्याय अंधेरा छूटे तो


नया सवेरा फूटे जो


थामें हम ये प्रभात !






उतर मुंडेरी


घूमों सूरज


जग का मेटो


सारा तम


मैं को तोड़ो


रच दो हम


अंतस सब के


डोलो तुम


अबोलों में जा


बोलो तुम


अमीर गरीब का


भेद मिटा कर


सब के सिर पर


मानवता का


फिर से रख दें ताज !

एक हिन्दी कविता

-<0>-प्रीत के गीत-<0>-



चलो


चल कर देखें


कौन कौन गा रहा है


प्रीत के गीत


या फिर हैं सभी


वासना में संलिप्त !






कितना अच्छा लगता है


यह जान कर


अमराइयों में


खेत-खलिहानों में


बहिन-भाइयों में


डर में भी घर में


अभी तक


गाए जा रहे हैं


उन्मुक्त प्रीत के गीत !






संसद की मुंडेर


क्यों नहीं बैठती


मधुरकंठी कोयल


कांव-कांव


क्यों होती है भीतर


पहुंची नहीं शायद


रीत प्रीत की


अभी तक यहां ।






मांड मेँ आज भी


ढाल रही है प्रीत


मारु-कलाळी


दारू दाख्यां वाली


बड़ी हवेली


नूरी बेगम रुंधे गले


अपने घर


क्यों रोती है


सुबक सुबक


आज भी बड़ी हवेली


प्रीत खरीदती है


बांटती नहीं शायद ।






देहरी के भीतर


पसरी है


चहुंदिश प्रीत असीम


जिसे रुखाले बैठी है अम्मा


विलायत जा बसे


बेटे-बहू-पोते


पर लुटाती रहती है


सांझ सवेरे


लौटता नहीं


एक भी कण प्रीत का


अम्मा के लिए


दूर दिसावर से


इसे अंजस बता


अम्मां टळकाती है आंसू


झरती है प्रीत आंगन मेँ !