शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित कागद की
तीन हिन्दी कविताएं

1
भीतर ही भीतर


जहां नहीं जा पाता
बुढ़ाए कदम से
वहाँ चला जाता हूं
मन पर आरूढ़ होकर।


जो देख नहीं पाता
मोतियाबिंद उतरी
आँखो से प्रत्यक्ष
उसे देख लेता हूं
आँखें मूंद कर।
दूसरा शहर
दूसरे लोग
आ जाते हैं सामने
उनसे बतिया भी लेता हूं
भीतर ही भीतर
परन्तु नहीं पाता
नहीं कर पाता
उनका स्पर्श
जिसका सुख
अभी भी
पैदा करता है सिहरन
दौड़ाता है मन को।


मन ले आता है
अतीत से
ढो कर खारा पानी
जो उतर जाता है
आँखों की कोर से
भीग जाता है
स्पर्श का सुख
अधर पुकार लेते हैं
अतीत में छूटे
अपनों के नाम।


2
मेरी भी प्रवृति



वृक्ष से गिरता
पीत हो पत्‍ता
खो जता विरात में
वृक्ष करता धारण
नव पल्लव
विगत को भूल
आगत के
स्वागत में
रम जाता ।


पल-पल
क्षरित होते भव में
सब कु्छ सम्भव
फिर भी
बहुत कुछ असम्भव
असम्भव को साधता
मेरा मन
नहीं रमता भव में
भव का पार भी
असम्भव, असार भी।


कहां खोजूं उन्हें
छूट गए
अजर-अमर
आत्मा जो थे।




यह प्रकृति है
तलाश है प्रवृति
मेरी भी प्रकृति है प्रवृति
मैं हूं किसी की तलाश में
या फिर है कोई
मेरी तलाश में।


3
फ़गत जिन्दा है मन



सात फेरों के बदले
लिख दी वसीयत दिल की
पत्‍नी के नाम।


मस्तिष्क गिरवी
घर दिया
पेट की क्षुधा के निमित
ऑफ़िस में।
हाथ हो गए गुलाम
ऑफ़िस की फ़ाइलों
बॉस की दुआ सलामी के लिए।


पैर थक गए
घर
दफ़्तर
बाजार
नाते-रिश्ते में
आते जाते।
आँखे पथरा गई
दृश्य-अदृश्य
देखते हुए।


कानों को सुनाई देती है
भनक
दंगो-उपद्रवों की
और नाक हो चुकी है आदी
बारूद की गंध की।


आशाएं अब
जागती ही नहीं
सो गई है
आश्‍वासनों की
थपकियां ले कर।


फ़गत जिन्दा है मन
जो नही है वश में
रोज पैदा करता है
उलझनें
बटोरता रहता है
ताने-बहाने
परन्तु रखे हुए है
जिन्दा रहने के बहाने।