सोमवार, जुलाई 26, 2010

ओम पुरोहित `कागद' की दो हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित `कागद' की दो हिन्दी कविताएं  


1
उस के सपने

वह
हर रोज
काम से लौटने के बाद
सपने देखता है


वह देखता है ;
उसका टीसता बदन
मखमल के कालीन  पर
पसरा हुआ है
और
कई कोमल हाथ
मालिश कर रहे हैं
सामने पड़ा टी.वी.
चौबीसों घंटे
उसकी मनचाही
फ़िल्में दिखा रहा है।
उसका मालिक
डाकघर  का  डाकिया है,
और
सुबह शाम
डाक की जगह
रोटियां बांटता है।


देश के चौबीस घराने
अशोक चक्र में खड़े हैं
और उसको वह
अपनी अंगुलियों पर चलाता है।



वह सपने में जब भी
कुछ आगे  बढ़ता  है
तुम्हारी कसम
बहुत बड़बड़ाता है ;
मैं अपना
सब कुछ लुटा सकता हूं
परन्तु
अपना अंगूठा
नहीं कटवा सकता
मां कसम
मैं इसी की खाता हूं।


अंधेरे बंद कमरे में
जब मतपेटियां
उसका मत मांगने
उसके करीब आती हैं
वह चीख पड़ता है - नहीं !
मैं, अपना मत
खुद डालूंगा
यदि आगे बढीं  
तो भून डालूंगा।


मैं देखता हूं
पूरी  रात
उसकी मुठ्ठी तनी रहती है
राम जाने
उसकी किस के साथ ठनी रहती है।



परन्तु
दूसरे दिन
जब वह काम पर लौटता है
गुम-सुम
अकेला
बहुत अकेला
जबड़े भींच कर बैठता है
और मुझे न जाने क्यों
सत्ता के गलियारे में
उल्लू बोलता सुनाई पड़ता है।

2

तुम्हारी भूल


तुम्हारा सोच है
कि, अपने इर्द-गिर्द
अलाव जला कर
तुम सुरक्षित हो
यही तुम्हारी भूल है
क्योंकि तुम नहीं जानते ;
हवाओं को कभी
दायरों में और न बाहर
कैद किया जा सकता है।


हवाएं
अलाव को लांघ कर
दुगुने वेग
और अतिरिक्त ताप के साथ
तुम तक पहुंचने की
औकात रखती है


तुम
हर बार
भूलते हो
और
गुब्बारों में
हवाओं को कै़द करने का
भ्रम पालते हो,
जब कि
यह सच है
गुब्बारों की हरगिज औकात नहीं
कि वे
हवाओं को कैद कर सकें
गुब्बारे
जब भी फूटेंगे
हवाएं
तुम्हारे द्वारा शोषित
अपनी जगह घेरने
धमाकों  के साथ
तुम्हारी ओर
बढ़ेगी
हां,
तब तुम
अपनी जड़ें
मजबूत रखना।

रविवार, जुलाई 11, 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की सात राजस्थानी कविताओं का हिन्दी अनुवाद

बात तो ही (राजस्थानी कविता संग्रह)

हिन्दी अनुवाद-अंकिता पुरोहित ‘कागदांश’

१.पालते हैं धर्म


गांव में
अकाल है
साक्षात शिव रूप
नमस्कार है !


मेहमान होता है
भगवान
भूख पधारी है
पसरी है
आंगन में
स्वागत है !


दादा जी का अस्थिपंजर
खुराक के बिना
सर्दियों में
करता है नृत्य
और साथ देते हैं
पिताजी भी !


पोतों की
अकाल मृत्यु पर
दादी की आंखें
बहाती हैं
गंगा-यमुना
झर-झर
दादी नहाती है
हमेशा
करती है कीर्तन ।


मां के घुटने
गाते हैं
हरीभजन
बहुएं
अलापती हैं संग में
हमेशा ।


पूरे घर में
बरसात की
वंदना है
भावना है
नहीं मरे
कोई जीव-जन्तु
अन्न-पानी के अभाव में।


रखते हैं मर्यादा
पालते हैं धर्म !


२.मन करता है


मन
कुछ न कुछ
करता ही रहता है ।


मन करता है
पंखुड़ी बनूं
कली बनूंड
फल बनूं
अथवा
वह टहनी बनूं
जिस पर लगते हैं
पंखुड़ी
कली
फ़ल ।
और फ़िर करता है
बनूं भंवरा
सूंघूं फ़ूल
बेअंत
कभी करता है
बनूं रुत
केवल बसंत !


३.चांद नहीं दिखाया


उन्होंने
बार-बार
हमें
चांद पर
ले जाने के
स्वपन दिखाए
परन्तु
एक बार भी
चांद नहीं दिखाया ।


उस समय तक
हम
जिसको उन्होंने
चांद कहा
उसको ही
चांद कहते रहे ।


जिस दिन
हमारे ऊपर
चांद निकला
उस दिन
घर से बाहर
निकलने की
सख्त मनाही थी


४.लोकतंत्र


रामलाल !
तूं गाय जैसा आदमी है
इस लिए
घास खा !


वे बेचारे
शेर जैसे आदमी हैं
मांस खाएंगे
तेरा !


देखना !
भूखा न सोए
लोकतंत्र में ।


५.केवल मैं जानता हूं


अपनी
ज़मीन से
जुड़ा रहना
कितना जरूरी है
आप जानते हैं
या मैं जानता हूं
परन्तु
मेरे पैरों तले
ज़मीन कितनी
चिकनी है
फ़िसलने का
खतरा कितना है
यह केवल मैं जानता हूं
आप कहां जानते हैं


६.अमानत


पागल थे
हमारे पुरखे
जो दे गए
भूख के कारण
अपनी कंठी-माला ।


दंड़वत प्रणाम
ठाकुर जी !
लौटा दो
हमारे पुरखों की
वह अमानत
उसी के बल
हो सकता है
पेट पालने का
कोई जुगाड़ !


७. बात तो थी


चिड़ी बोली
चड़-चड़ !
चिड़ा बोला
चूं !
चिड़ी बोली
चूं-चूं !
चिड़ा बोला
चीं !
चिड़ी बोली
चीं-चीं !
दोनों उड गए
एक साथ
फ़ुर्र
बात तो थी।

सोमवार, जुलाई 05, 2010

ओम पुरोहित "कागद" की सात हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित "कागद" की सात हिन्दी कविताएं



सात अकाल चित्र



1.
पपीहा थार में

सूने पड़े आकाश में
दूर-दूर तक
कहीं भी नहीं दिखता
बादल का कोई बीज
बोले भी तो
किस बिना पर
पपीहा थार में !

2.
 राजधानी में

वह
आया था गांव से
देश की राजधानी में
मुंह अंधेरी भोर में
ताजा छपे अखबार सा
अंग-अंग पर
सुकाल से
अकाल तक के
तमाम समाचार लिए
पड़ा है आज भी
ज्यों पड़ा हो
हिन्दी अखबार
केरल के किसी देहात में ।

3.
सुखिया

सुकाल से
अकाल तक का
जीवंत  वृतांत है
गांव से आया सुखिया ।

पड़ा है
शहर में फुटपाथ पर
अपने परिवार के संग
ज्यों पड़ा हो
एक कविता संग्रह अनछुआ
किसी पुस्तकालय में ।

4.
छापता है पगचिन्ह

सांझ है
भूख है
प्यास है
फिर भी गांव व्यस्त है
सिर पर ऊंच  कर घर
डाल रहा है उंचाला
छापता है पग-चिन्ह
जो
मिट ही जाएंगे कल भोर में
नहीं चाहता
कोई चले इन पर
मगर
भयभीत है;
खोज ही लेंगे कल वे
ऐसे ही अकाल में  
जैसे खोज लिए हैं आज
उसने
अपने बडेरों के पग-चिन्ह ।

5.
कहीं नहीं है खेतरपाल

सूख गई 
वह खेजड़ी
जिस में निवास था
खेतरपाल का
जिस पर धापी ने
चढ़ाया था अकाल को भगाने
सवा सेर तेल
और
इक्कीस का प्रसाद ।

ज्यों का त्यों है अकाल
मगर
खेजड़ी के तने पर
आज भी चिकनाई है
चींटे अभी भी घूमते हैं
सूंघते हैं
प्रसाद की सौरम
परन्तु
नहीं है आस-पास
कहीं नहीं है खेतरपाल ।

6.
 बूढ़ा नथमल

जोते-जोत हल
तन से
बरसाता है जल
बूढ़ा नथमल
ताकता है आकाश
जहां
दूर-दूर तक
पाता नहीं जल
बस
रह जाता है
जल-जल,
नथमल ।

7.
भूख है यहां भी

अकाल है
नहीं है आस जीवन की
पलायन कर गया है
समूचा गांव ।

मोर
आज भी बैठा है
ठूंठ खेजड़े पर
छिपकली भी रेंगती है
दीवारों पर
और
वैसे ही उड़-उड़ आती है
चिड़िया कुएं की पाळ पर ।

भूख यहां भी है
है मगर देखने की
एक आदम चेहरा ।

गुरुवार, जुलाई 01, 2010

आज म्हारी मायड भाषा रा दूहा

 म्हारी मायड भाषा रा दूहा              
                    राजस्थानी भाषा




राज बणाया राजव्यां,भाषा थरपी ज्यान ।
बिन भाषा रै भायला,क्यां रो राजस्थान ॥१॥

रोटी-बेटी आपणी,भाषा अर बोवार ।
राजस्थानी है भाई,आडो क्यूं दरबार ॥२॥

राजस्थानी रै साथ में,जनम मरण रो सीर ।
बिन भाषा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर ।।३॥

 पंचायत तो मोकळी,पंच बैठिया मून ।
बिन भाषा रै भायला,च्यारूं कूंटां सून ॥४॥

भलो बणायो बाप जी,गूंगो राजस्थान ।
बिन भाषा रै प्रांत तो,बिन देवळ रो थान॥५॥

आजादी रै बाद सूं,मून है राजस्थान ।
अपरोगी भाषा अठै,कूकर खुलै जुबान ॥६॥

राजस्थान सिरमोड है,मायड भाषा मान ।
दोनां माथै गरब है,दोनां साथै शान ॥७॥

बाजर पाकै खेत में,भाषा पाकै हेत ।
दोनां रै छूट्यां पछै,हाथां आवै रेत ॥८॥

निज भाषा सूं हेत नीं,पर भाषा सूं हेत ।
जग में हांसी होयसी,सिर में पड्सी रेत ॥९॥

निज री भाषा होंवतां,पर भाषा सूं प्रीत ।
ऐडै कुळघातियां रो ,जग में कुण सो मीत ॥१०॥

घर दफ़्तर अर बारनै,निज भाषा ई बोल ।
मायड भाषा रै बिना,डांगर जितनो मोल ॥११॥

मायड भाषा नीं तजै,डांगर-पंछी-कीट ।
माणस भाषा क्यूं तजै, इतरा क्यूं है ढीट ॥१२॥

मायड भाषा रै बिना,देस हुवै परदेस ।
आप तो अबोला फ़िरै,दूजा खोसै केस ॥१३॥

भाषा निज री बोलियो,पर भाषा नै छोड ।
पर भाषा बोलै जका,बै पाखंडी मोड ॥१४॥

मायड भाषा भली घणी, ज्यूं व्है मीठी खांड ।
पर भाषा नै बोलता,जाबक दीखै भांड ॥१५॥

जिण धरती पर बास है,भाषा उण री बोल ।
भाषा साथ मान है , भाषा लारै मोल ॥१६॥

मायड भाषा बेलियो,निज रो है सनमान ।
पर भाषा नै बोल कर,क्यूं गमाओ शान ॥१७॥

राजस्थानी भाषा नै,जितरो मिलसी मान ।
आन-बान अर शान सूं,निखरसी राजस्थान ॥१८॥

धन कमायां नीं मिलै,बो सांचो सनमान ।
मायड भाषा रै बिना,लूंठा खोसै कान ॥१९॥

म्हे तो भाया मांगस्यां,सणै मान सनमान ।
राजस्थानी भाषा में,हसतो-बसतो रजथान ॥२०॥

निज भाषा नै छोड कर,पर भाषा अपणाय ।
ऐडै पूतां नै देख ,मायड भौम लजाय ॥२१॥

भाषा आपणी शान है,भाषा ही है मान ।
भाषा रै ई कारणै,बोलां राजस्थान ॥२२॥

मायड भाषा मोवणी,ज्यूं मोत्यां रो हार ।
बिन भाषा रै भायला,सूनो लागै थार ॥२३॥

जिण धरती पर जळमियो,भाषा उण री बोल ।
मायड भाषा छोड कर, मती गमाओ  डोळ ॥२४॥

हिन्दी म्हारो काळजियो,राजस्थानी स ज्यान ।
आं दोन्यूं भाषा बिना,रै’सी कठै पिछाण ॥२५॥

राजस्थानी भाषा है,राजस्थान रै साथ ।
पेट आपणा नीं पळै,पर भाषा रै हाथ ॥२६॥