सोमवार, मार्च 28, 2011

एक ताज़ा हिन्दी कविता



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*** मन करता है ***



हम चाहे
कुछ करेँ या न करेँ
मन हमारा
कुछ न कुछ
ज़रूर करता रहता है !

हमनेँ वोट किया
बदले व्यवस्था
नहीँ बदली !
मन ने
बो दिए बीज
न हो सकने वाली
अदृश्य क्रांति के !


मन करता रहा
भूखे को भोजन
नंगे को कपड़ा
घरहीन को घर
मिल ही जाए
संसद ने नहीँ सुना
भोजन अवकाश के बाद
वह स्थगित हो गई
अनिश्चितकाल के लिए ।


मन बोला
पेट क्योँ है
हर किसी के
जब भोजन नहीँ है
सब के लिए ।
लोग नंगे क्योँ है
जबकि सरकारेँ
कपड़े के लिए नहीँ
बुनती है ताने-बाने
अपने बने रहने के लिए ।


मन ने पूछा
देश मेँ
बहुत से हैँ
चिड़िया घर
अज़ायब घर
डाक घर
मुर्दा घर
फिर क्योँ हैँ
बहुत से लोग बेघर
इतने बरसोँ से !


नहीं मिलता
कहीँ से भी
किसी भी सवाल का
कोई ज़वाब
फिर क्योँ है
मेरे पास
उत्तरविहीन
इतने सवाल ?

मन पूछता रहता है
सब के हाथ
लड़ने के लिए नहीँ
मिलाने के लिए भी है
फिर क्यों
कुछ हाथ निकलते है
रोटी और लड़ाई के लिए ।


मन भरमाता है
हाथोँ की अंगुलियां
जब हैँ
मुठ्ठियां बंनने
और तनने के लिए
तो फिर क्योँ
पसर जाते हैँ हाथ
उठ जाती है अंगुलियां
एक दूसरे की ओर !


मन करता है
मन न करे कुछ
तन करे
ताकि चल सके
तन कर आदम जाये !













4 टिप्‍पणियां:

  1. मन ने पूछा
    देश मेँ
    बहुत से हैँ
    चिड़िया घर
    अज़ायब घर
    डाक घर
    मुर्दा घर
    फिर क्योँ हैँ
    बहुत से लोग बेघर
    इतने बरसोँ से !....

    kash iska uttar mil pata... behatreen kavita.. udwelit kar deti hai...

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  2. यह अनुत्तरित सवाल बस मन से ही द्वन्द रत है .......काश इनके जवाब मिल जाये कही तो मन और तन दोनों सुख पाए .. एक अलग ही अनुभूति होती है आपकी रचनाये पढ़ कर ....आभार

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  3. आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
    मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
    दिनेश पारीक
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
    http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html

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