शनिवार, अगस्त 13, 2011

मेरी एक हिन्दी कविता


*** मुझे लड़ना है ***


अंधेरो से
लड़ना चाहता हूं


मगर दिखता नहीँ


कोई साफ साफ अक्स


इस कलमस मेँ


सब के सब


धुआंए हैं


स्याह धुएं मेँ ।






चौतरफ़ा यह धुआं


आया कहां से


नहीँ बताया


धुआंए चेहरोँ ने


और धुआंने को आतुर


दूसरे लोगोँ ने !






कुछ लोग


कुछ लोगोँ का


जला रहे हैँ दिल


सुलगा रहे हैँ ज़मीर


कुछ लोग


बस केवल


हवा दे रहे हैँ


या फिर झोँक रहे हैँ


अपना ईमान !






कुछ लोग


मुठ्ठियां भीँच रहे हैँ


दूर खड़े


दूर ही खड़े


कुछ और लोग


दांत पीस रहे हैँ


मुठ्ठियां भीँचने वालोँ पर !






कुछ लोगोँ ने


खोल दी हैँ मुठ्ठियां


और


सुस्त चाल चलते


कर रहे हैँ


उनका या समय का


मौन अनुकरण !






मुझे तो अभी लड़ना है


पहले खुद से


अंधेरोँ से


और फिर उनसे


जिनका आभामंडल है


यह स्याह अंधेरा !


.

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