आंखों से एक सपना खो कर आया हूं
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥
कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं
न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर ।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लाया हूं ॥
क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥
न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥
निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥
[] ओम पुरोहित "कागद’
बहुत सुन्दर गज़ल ..हरेक शेर लाजवाब है!!
जवाब देंहटाएंखूब....बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है....
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.