*मां के साथ*
रात रात भर
सोते हुए जागना
जागते हुए सोना
... कोई बीमारी नहीं
लाचारी भी है
इश्क-रिस्क
भूख-भय
इल्म और जुल्म
सबब भी हैँ
मगर
सोने की नसीहत
बांटने वाले लोग
मां तो नहीं होते
जो सुला दें
हमारे दुखों का
स्वयं वरण कर !
निःर्थक तो नहीं होतीं
मां की लोरियां
मीठी थपकियां
या फिर
थके हारे माथे पर
झुर्रियों सने हाथ का
ममता भरा
मनोचिकत्सकीय स्पर्श
जो कर देता है
हमारी वेदनाओँ को
अतंतस्थ तक परास्त !
मां के साथ
देर तक जागना
जोड़ देता है
तीनोँ काल से
विरासत
संस्कृति
इतिहास और परम्परा से
मां ही सुलाती है
सुखों की शैया पर
वही नहालाती है
शांति के सागर मेँ !
मां !
तुम मानसरोवर हो
जहां मिलते हैं मुझे मोती
तुम आश्रम भी हो
जहां मैं बांचता हूं
भव की पोथी !
सच मेँ मां
तुम्हारा स्मरण भर
मुझे कर देता है
भव बाधाओं के पाश से
मुक्त उन्मुक्त !
*मौन अंधेरा*
उजाला चला
अंधेरा चीर
निकला आगे
आगे से आगे
... दंभ पालता
भरता डग गम्भीर !
पीछे दौड़
अंधेरा आया
मंद गति
घनघोर छाया
बिम्ब समेटे
प्रतिबिम्ब लपेटे
भीतर अपने
निगल गया
उजाले की तकदीर ।
एक अकेली
धारे आंख
दसों दिशा मेँ
सूरज दौड़े
उसकी पीठ
बैठ अंधेरा
पल पल
उसका
दंभ तोड़े !
जगमग दीपक
करता टिम टिम
उसके नीचे
अमा का नाती
बैठा मौन अंधेरा
दीपक भोला
बात्ती तानेँ
कब जानेँ
रात अमा की लम्बी है
चांद छौड़ कर
भागा जिसको
रात वह अवलम्बी है ।
अच्छी कवितायें ....
जवाब देंहटाएंमाँ के साथ ...बिलकुल सही लिखा सर आपने....
सर समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ....
http://dilkikashmakash.blogspot.com/
बेहतरीन...
जवाब देंहटाएं"माँ के साथ".....लाजवाब.
सादर.