रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

नीचे धरती ऊपर आसमान तो है ।



मिलती धूप छांव सबको समान तो है ।।


इस पर भी है पहरा किसी किसी घर में ।


देख लो कुदरत का भी अपमान तो है ।।

*सपना टूट गया*







रात छोटी थी


सपना था बड़ा


रात बीत गई


सपना टूट गया


टूटा सपना


फिर नहीं जुड़ा


ठीक वहीं से


जहां से टूट था


पहली रात के अंतिम पहर!






फिर नहीं आए


वे पात्र


जो थे साथ रात भर


उस सपने वाली रात में ।






वे दर और दीवार भी


नहीं आए लौट कर


जिन में रच दिया था


हम ने इतिहास


उस पहली रात ।






उस रुपहली रात में


कितना रोशन था


दूधिया चांद


बिखेरता मधुरस !






आज फिर जुटी


जुड़ी रात मेँ


कितना अलसाया सा है


बूढ़ी अम्मा के मुख सा


बेचारगी ओढ़े चांद !






अब तो


सपनों वाली


उस पहली रात के


सपने भी दूभर हैं


अब रातें बड़ी हैं


सपने बहुत छोटे


छोटे छोटे सपने


नींद तोड़ते हैं


रात नहीं


रात पड़ी रहती है शेष


अजगर सी पसरी


लिपटती हुई


हमारे इर्द गिर्द !

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