मंगलवार, सितंबर 25, 2012

दो गज़ल

एक-
यार था बेपनाह मुहब्बत कर गया ।
गया तो दर्दे दिल वसीयत कर गया ।।
अलकतरा की तामीर था यह शहर ।
जरा सी धूप उतरी तो पसर गया ।।
पहाड़ों से जो पत्थर उतारे गए ।
नीचे उन्हीँ मेँ लामकां उतर गया ।।
रात भर तलाश जारी रही उसकी ।
सुबह जो हुई तो वो चांद मर गया ।।
पत्थर से बहुत ठोस था दिल उसका ।
ना जाने कोई कैसे उतर गया ।।

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दो-

अपनी हर बात पर तमाशा किए बैठै हैं ।
बडी़ ही सही हम तोआशा लिए बैठै हैं ॥

अपने दिल-ए-कांच की हिफ़ाजत करूं कैसे ।
वो शहर  भर के पत्थर ज़ब्त किए बैठै हैं ॥

उनके गम का हमसाकी बनूं भी तो कैसे ।
वो तो दुनिया के तमाम अश्क पिये बैठै हैं ॥

क्या जाने उनके भी दिल में है इधर सा ।
वो जो अर्से से अपने लब सिये   बैठै हैं ॥

कहां तक थामेंगे हाथ    सफ़र-ए-ज़िन्दगी में ।
वो जो उम्र का हर लम्हा आज जिए बैठै हैं ॥

वो क्योंकर आने लगे अब मेरे अलाव पर ।
जो अपने  दामन में आफ़ताब लिए बैठै हैं ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
    और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  2. बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल
    उम्दा पंक्तियाँ ..
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