छोड़ पगडंडियां
जब से आई हैं
सड़क पर लड़कियां
तब से गुमसुम हैं
ठहर गए हैं
गांव और ढाणीं
बहक बहक गए हैं
शहर के गली मोहल्ले !
पगडंडियों से उतर
सड़क पर चढ़ी
चौके तक पढ़ीं
हर रोज विज्ञापनों में
दिख रही हैं लड़कियां
जिन चीजों को
बनाया-पकाया
या देखा नहीं कभी
उनकी छवि के साथ
वही अनजानी चीजें
खूब बिक रही हैं ।
शहर की लड़कियां
पूछती हैं उन से
गेहूं का पेड़
कितना बड़ा होता है
लाल मिर्च की बेल
कितनी लम्बी होती है
गांव में कहां से आते हैं
हारा-मटका और तंदूर
शहर से गांव
क्यों होते हैं दूर
गांव की लड़कियां
हंस कर टाल देती है
सवालों के उत्तर
मानो बचा लेती हैं
अपने गांव को
अपने भीतर ।
शहर की लड़कियां
हंसती हैं उन पर
अज्ञानी समझ
देती हैं सलाह
कुछ पढ़-लिख कर
एग्रीकल्चर में
एम.एस.सी. कर लो
सब जान जाओगी !
गांव की लड़कियों के
मस्तिष्क में सुरक्षित हैं
आज भी पगडंडियां
जिनके सहारे पहुंच कर
अपने भीतर
जी लेती हैं अपना गांव
कोई भी पगडंडी
नहीं जाती
शहर से गांव तक
इस लिए
शहर की लड़कियों के
मस्तिष्क में कहीं भी
नहीं होता गांव !
जब से आई हैं
सड़क पर लड़कियां
तब से गुमसुम हैं
ठहर गए हैं
गांव और ढाणीं
बहक बहक गए हैं
शहर के गली मोहल्ले !
पगडंडियों से उतर
सड़क पर चढ़ी
चौके तक पढ़ीं
हर रोज विज्ञापनों में
दिख रही हैं लड़कियां
जिन चीजों को
बनाया-पकाया
या देखा नहीं कभी
उनकी छवि के साथ
वही अनजानी चीजें
खूब बिक रही हैं ।
शहर की लड़कियां
पूछती हैं उन से
गेहूं का पेड़
कितना बड़ा होता है
लाल मिर्च की बेल
कितनी लम्बी होती है
गांव में कहां से आते हैं
हारा-मटका और तंदूर
शहर से गांव
क्यों होते हैं दूर
गांव की लड़कियां
हंस कर टाल देती है
सवालों के उत्तर
मानो बचा लेती हैं
अपने गांव को
अपने भीतर ।
शहर की लड़कियां
हंसती हैं उन पर
अज्ञानी समझ
देती हैं सलाह
कुछ पढ़-लिख कर
एग्रीकल्चर में
एम.एस.सी. कर लो
सब जान जाओगी !
गांव की लड़कियों के
मस्तिष्क में सुरक्षित हैं
आज भी पगडंडियां
जिनके सहारे पहुंच कर
अपने भीतर
जी लेती हैं अपना गांव
कोई भी पगडंडी
नहीं जाती
शहर से गांव तक
इस लिए
शहर की लड़कियों के
मस्तिष्क में कहीं भी
नहीं होता गांव !
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