अपनी हर बात पर तमाशा किए बैठै हैं ।
बडी़ ही सही हम तोआशा लिए बैठै हैं ॥
अपने दिल-ए-कांच की हिफ़ाजत करूं कैसे ।
वो शहर भर के पत्थर ज़ब्त किए बैठै हैं ॥
उनके गम का हमसाकी बनूं भी तो कैसे ।
वो तो दुनिया के तमाम अश्क पिये बैठै हैं ॥
क्या जाने उनके भी दिल में है इधर सा ।
वो जो अर्से से अपने लब सिये बैठै हैं ॥
कहां तक थामेंगे हाथ सफ़र-ए-ज़िन्दगी में ।
वो जो उम्र का हर लम्हा आज जिए बैठै हैं ॥
वो क्योंकर आने लगे अब मेरे अलाव पर ।
जो अपने दामन में आफ़ताब लिए बैठै हैं ।
अपने दिल-ए-कांच की हिफ़ाजत करूं कैसे ।
वो शहर भर के पत्थर ज़ब्त किए बैठै हैं ॥
उनके गम का हमसाकी बनूं भी तो कैसे ।
वो तो दुनिया के तमाम अश्क पिये बैठै हैं ॥
क्या जाने उनके भी दिल में है इधर सा ।
वो जो अर्से से अपने लब सिये बैठै हैं ॥
कहां तक थामेंगे हाथ सफ़र-ए-ज़िन्दगी में ।
वो जो उम्र का हर लम्हा आज जिए बैठै हैं ॥
वो क्योंकर आने लगे अब मेरे अलाव पर ।
जो अपने दामन में आफ़ताब लिए बैठै हैं ।
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