चार हिन्दी कविताएं
* द्वंद्व *
जब तलक
न बटोर सके
मूरत अमूरत संवेदनाएं !
अपने अपने समूह
उतर आए उनमेँदृश्य-अदृश्य-सदृश्य
आकार-निराकार
उभरने-झलकने लगे
सुख-दुख-मनोरथ
आकांक्षाएं-लालसाएं
द्वंद्व-युद्द
अकारण सकारण सकल !
समवेतालाप
और एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !
टूट कर
अलग हो जाए पत्ता
मगर
एहसास रहता है
शेष शाख पर
सम्बन्धोँ के
अतीत होने का !
थे जो कभी
साकार मुखर
आज निराकार
धार असीम मौन
स्मृतियोँ मेँ
फिर फिर से
लेते हैँ आकार
बतियाऊं कैसे
स्मृतियोँ के एहसास से !
सम्बन्ध नि:शब्द जन्मे
नि:शब्द रहे
नि:शब्द ही
कर गए प्रयाण
अर्थाऊं कैसे
असीम मौन औढ़ कर !
* फासले *
कदम हम चार चले
सामने तुम्हारे
तुम भी चले
कदम चार
मगर
अपने ही पीछे !
यूं न कभी
अंत हुआ सफर का
न फासले ही कम हुए !
आहटोँ पर
कान लगाए
चलते रहे
चलते रहे
न बतियाए
किसी पल
सफर के बीच
पड़ाव तलक
न आया जो कभी !
बस
परस्पर मुस्कुराहटेँ
ढोती रहीँ
अनाम सम्बन्धोँ को
हमारे बीच
अनवरत !
* काण *
रात भर
बात बेबात
जागने वालोँ को
क्या और क्योँ
अलग से विशेषण दूं
दोस्त कह दूं तो भी
तराजू के पलड़ोँ मेँ
काण तो दिख ही जाएगी !
तुम कहो तो
तुम्हेँ "मैँ" कह दूं !
समवेतालाप
जवाब देंहटाएंऔर एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !
.............
रात भर
बात बेबात
जागने वालोँ को
क्या और क्योँ
अलग से विशेषण दूं
दोस्त कह दूं तो भी
तराजू के पलड़ोँ मेँ
काण तो दिख ही जाएगी !
तुम कहो तो
तुम्हेँ "मैँ" कह दूं !..........
..........
अध्भुत.......
बहुत खरी बात, अच्छा अंदाज़ है ये भी. द्वन्द सम्बन्ध फ़ासले सभी एक से बढ़ कर एक
जवाब देंहटाएं