देहरी को लांघ
सड़क से सरोकार
यानी
असीम से साक्षात्कार ।
अंतहीन आशाएं
उगेरती सड़क
उकेरती अभिलाषाएं
पसर पसर आती हैँ
भटक भटक जाता है जीवन
कभी कभी
लौट भी नहीँ पाता
मुकम्मल सफ़र के बाद भी
कोई अधीर पथिक ।
सड़क चलती रहती है
आशाओँ
अभिलाषाओँ
आकांक्षाओँ को समेटती ।
बीच अधर मेँ
भले ही रुक जाए सफ़र
देह का
जीवन का सफ़र
नहीँ रुकता कभी भी ।
छूटती आशाएं
किसी और कांधे पर
आरूढ़ हो
फिर फिर से
निकलतीँ हैँ सफ़र पर
यूं कभी नहीँ होती खत्म
प्रतीक्षा किसी भी देहरी की
जो झांकती है शून्य मेँ
उसके मुंह के सामने
पसरी सड़क की देह पर
कि आए वह लौट कर
जो निकला है सफ़र पर
दे दस्तक सांझ ढले
लेकिन
सड़क नहीँ बोलती
कभी भी नहीँ बोलती ।
बेहतरीन रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत खुब जी, सडक तो चुपचाप देखती हे नजारे आने जाने वालो के
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया रचना विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जवाब देंहटाएंwaah Om ji ..kmaal ka likha hai...
जवाब देंहटाएंwaah Om ji ..kmaal ka likha hai..
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