रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

आदमी के भीतर आदमी
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आदमी के भीतर
देखे हैं मैंने
कई-कई आदमी
बच्चे से ले कर
युवा और बूढ़े तक
जो ढलते रहते
कामना के अनुरूप।

आदमी के भीतर
दो आदमी तो
दिख ही जाते हैं
एक ही आदमी मेँ
कभी बड़ा आदमी
कभी छोटा आदमी
वह भी
महानता में महान
न्यूनता में न्यून !

मेरे भीतर भी हैं
छोटा आदमी
जो रहता है कुंठित
पाता है खुद को
शोषित और दमित
इस आदमी से
बहुत डरता हूं मैं
तुम भी डरो
यही लाएगा कभी
राख में से ढूंढ कर
दहकती चिनगी
फिर पता नहीं
किस-किस का क्या-क्या
कर देगा भस्म !

वैसे
मेरे भीतर के
बड़े आदमी का भी
खतरा कम नहीं है
आंके बिना खुद को
जीता है भ्रम में
गड़ता है शर्म में
मगर डरता है श्रम से
हिमालय जैसा
दम्भ इसका
कहीं अडिग न रह जाए
ये देखता रहै
और
नदी पास से निकल जाए ।

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