रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

उल्झन
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कैसी अजीब उल्झन है ;
बोलूं तो
सो नहीं पाता
मौन रहूं तो
नींद नहीं आती
आंख बंद करूं तो
उभरता आता है
अक्स तुम्हारा
फिर तो
जागना ही पड़ता है
रात-रात भर !

न तुम जागरण हो
न तुम नींद
न हो माध्यम
न उपक्रम उसका
फिर कौन हो
जो उचकाते हो
आते हो बार-बार
उल्झा हुआ ले कर
सांसों का ताणा पेटा ?

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