आकाश अंतरिक्ष में
तना रहा
आगोश में लिए
अंगारो का पितामह
स्वछन्द हठी सूरज !
कभी उतर कर
नहीं आया
तपती धरा के पासंग
हमेशा पैदा किया भ्रम
बड़बोले जगत में ;
वो दूर छू रहा है
आकाश धरा को
चपल जगत ने
खींच भी ली
मनमानी क्षितिज रेखा
सुदूर अंतरिक्ष में
अपने ही सामर्थ्य से !
धरा मौन थी
मौन ही रही
उसकी जाई रेत
गई उड़ कर
अंतरिक्ष मेँ निष्कपट
हो भ्रमित लौट आई
सूरज के तपते मोहपाश से
आबद्ध हो कर
अब पड़ी है
साध कर अखूट मौन
जिस में कैद हैं
अथाह प्यासे सवाल !
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