हिलती शाख
बैठा पंछी
धारे मौन
पंख पसारे
आंखें मूंद !
आंखों में
नापता गगन
विशालता नभ की
भीतर ही भीतर
करता अवलोकन
तोलता अपने पंख पसार !
आंखों में सपना
नीड़ हो अपना
नाप गगन को
उतरूं शाख
चल पहुंचू निज नीड़
जहां न हो आदम भीड़ ।
यक-ब-यक
उड़ चला
मन उसका
पाने नया आकाश
जिस में न हो
आदम आकांक्षाओं का
यांत्रिक धुंआं
न हो गंध बारुदी
हल्ला गुल्ला
शोर शराबा मनचला ।
हुआ अचानक
एक धमाका
नीरवता तोड़ गया
सुन धमाका
टूटी तंद्रा
खुल गई आंख
सपना टूट गया
पूछो तो जा कर
पंछी कितना टूट गया !
nice poem
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