सोमवार, जुलाई 29, 2013

*लड़की सोचती है*

अपने बचपन की
मधुरतम यादें
गली-मोहल्ला
अपना घर
मां बाप का दुलार
भाई-बहिनों का प्यार
यहां तक कि खुद को भी
छोड़ कर अपने गांव में
किसी के पीछे बंध कर
चली आई थी लड़की
अपने स्व का
निर्बाध विलय
किसी में करने
किसी को रचने
जो हो ही गया था
शहनाई की गूंज के बाद !


यक-ब-यक
वही छूट गया
जिस में होना था
उसका सम्पूर्ण विलय
अब घर
रह गया था
केवल एक अरण्य



जिस में करती है
वह एकाकी विचरण !

लड़की सोचती है
समाज का बनाया
अटूट बंधन टूटने पर
अपना सब कुछ त्याग
बनाया साथ छूटने पर
एकाकी क्यों हो जाती है
एक लड़की
जिसे ताउम्र
रोना होता है
पहाड़ जैसा जीवन
अकेले ही
ढोना होता है ।

(यह कविता तो नहीं है मगर सत्य पर मचली निज संवेदना जरूर है)

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