'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, मार्च 30, 2014
कुछ तो बोल
चट्टान तोड़ कर भी
फूट जाते हैं
कोमल बिरवे
झूमने लगते हैं
हो उन्मुक्त
खिल जाते हैं
उन पर पुहुप
बिखेर देते हैं वे
चारों दिशाओं में
अंतहीन गंध !
तुम तो
पाषाण भी नही हो
फिर क्यों नहीं फूटते
तुम्हारे मुख से
दो मीठे बोल
कुछ तो बोल !
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