'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014
*आती नहीँ सांस*
थोड़ी सी
खुली हवा मिलते ही
हम ने बो दी
फसल अधिकारोँ की
फिर किया इंतजार !
कुछ ही दिन बाद
कानून लहलहाए
आसमान छूने लगे
फल फिर भी न आए
अब कानूनोँ के झुरमुट मे
आती नहीँ सांस !
अब तो धरा
करनी ही पड़ेगी
फिर से तैयार
नई फसल के लिए ।
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