शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

देह का होता है वैधव्य

उसे पता था
उसे प्रेम है
जिसका नहीं था
किसी को भी पता
शादी वाले दिन
आज भी नहीं है
जब छोड़ गया संसार
फेरों वाला
उसकी आंखों में
आज भी हैं आंसू
उसी बेबसी के
जो थे फेरों वाले दिन
दुनिया ने
नाहक फोड़ दीं
आगे बढ़ कर चूडियां
सूनी कर दीं कलाइयां
मन नहीं हुआ सूना !

उसे
आज भी सुहाता है
लाल जौडा
हरे कांच की चूडियां
बहुत भाता है
पल-पल संवरना
दुनिया सोचती है
केवल उसका वैधव्य
वह तो हर पल
उसे ही सोचती है
जो उसे नहीं मिला !

सफेद कफडों में ढकी
उस देह के भीतर
आज भी बैठी है
एक सधवा
जो चाहती है
सावन की बारिश में
खिलखिला कर नहाना
वह कहना चाहती है
मन का नहीं
देह का होता है वैधव्य 

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