रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

<> बेटी का खत <>


नेट ओ मोबाइल के


इस शातिर युग में भी


खत आया है बेटी का


लिखी है बेटी ने


खत में गत अपनी ।






सच कहते थे पापा तुम ;


आती नहीं नींद


रात रात भर बिस्तर में


छत निहारूं


देखूं आंगन


आंखें पसरी जाती हैं


सोए बच्चे


दिखते बढ़ते


बढ़ते खर्चे


गली गली में


होते चर्चे


दिखता खर्च त्यौहारी का !






सास बुढ़ाई


ससुर मुहाने


घर में लगते


सब बतियाने


गंगा चलो


चलें नहाने


सोने की सीढ़ी चढ़ें बडेरे


हाथ खोल कर


बढ़ लो आगे


बोला पंड़ित लगा गुर्राने !






दामाद आपके


बैठे ठाले


खर्ची खूटे आते घर


घर मेँ घुसते लगता डर


काम धाम हाथ नहीं


आमद की कोई बात नहीं


ना झगड़ें हम


ऐसी कोई रात नहीं


दुख मत करना पापा तुम


वैसी ही हैं बातें सारी


जो तुम अम्मां से करते थे


नई तो कोई बात नहीं !






नाती आपका


आया खा कर फेरे


बैठा चौबारे दे कर डेरे


कोई कलमुहा आवारा


नातिन के देता फेरे


यही चिंता रहती घेरे


पापा पड़ी पार आपकी


मेरी मुश्किल लगती है


इस दुविधा में पापा


रात बैठ बैठ गुजरती है ।






संकट सारे


मेरे द्वारे


दौड़ दौड़ क्यों आते हैं


घर में


सोते सभी चैन से


आंसू मेरी आंख भिगोने


क्यों किनारे आते हैं ?


छोड़ो पापा क्या गिनाऊं


दुख वही तो सारे हैं


जिनको ढोते ढोते


तुमने दिन उम्र के गुजारे हैँ


जाओ छुप कर सो जाओ


तुम भी रो कर हो लो हलके


मैंने तो दो पाव उतारे हैं !

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