बुधवार, नवंबर 24, 2010

ओम पुरोहित "कागद" की दो हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित "कागद" की
दो हिन्दी कविताएं


             1.
याद आता है बचपन

आज भी
याद आता है बचपन;
वो दौड़ कर तितली पकड़ना
आक के पत्ते झाड़ना
पोखर में नहाना
और फिर
धूल में रपटना
मां की डांट खा कर
नल पर नहाना।


कभी-कभी
मां के संग
मंदिर जाना
खील-बताशे खाना
स्कूल न जाने के लिए
पेट दर्द का
बहाना बनाना
फिर मां का दिया
चूर्ण चटखाना
होम वर्क की कॉपी
छुपाना-जलाना
कुल्फी से
होंठ रंगना।


बिल्ली जैसा
म्याऊं करना
कभी रोना मचलना
कभी रूठना मनना
मन करता है
बचपन फिर आए
मां लोरियां सुनाए
न दु:ख हो
न दर्द हो
हर भय की दवा
मां बन जाए
मैं लम्बी तान कर
सोऊं दोपहर तलक
मां जगाए-खिलाए
मैं खा कर सो जाऊं
न दफ्‍तर की चिंता
न अफसर का डर हो
बस लौट आए
वही बचपन
वही मां की गोद।


              2.
फिर वैसी ही चले बयार


फिर वैसी ही
चले बयार
जिसके पासंग में
पुहुप बिखरे महक
महक में बेसुध
गुंजार करते भंवरे
पुहुप तक आएं।


फिर हो
वैसी ही अमां की रात
जिस में ढूंढ लें
जुगनू वृंद
नीड़ अपना
फिर हो
वैसी ही निशा
निशाकर की गोद में
सोई निशंक
जिसकी साख भरता
खग वृंद
छोड़ अपना नीड़
बतियाएं दो पल
मुक्‍त गगन तले।


फिर हो
चंदा और चकौरी में
उद्दात वार्तालाप
जिसे सुन सके
ये तीसरी दुनिया
फिर हो वैसी ही
स्नेह की बरखा
जिस के जल में
भीग जाए
यह सकल जगती।

बुधवार, नवंबर 03, 2010

ओम पुरोहित “कागद" की चार हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित “कागद" की
चार हिन्दी कविताएं


(1)
कल्पना

मैं कल्पना
बहुत कम लोग
दे पाते
आकार मुझे
मैं अनघड़
पत्थर सी
कष्‍टियाते हवा-पानी के
तीव्र वेग से पाती
घुमड़ीले आकार
किसी को भाते
किसी को सुहाते
कुछ करते स्पर्श
कुछ रोंद कर
गुजर जाते
लेकिन
ले जाते
मस्तिष्क की डोली में
अपने साथ

(2)
हवा

हवा पास से
निकल जाए
गुनगुनाती
महक चुराती
पुहुप का दामन
कुंवारा कब रह पाता
दौड़ता क्षण
फिर थम जाता
हवा का पता उसे
कौन बताता


(3)
आस

हम ने जो पेड़ लगाया था
धरा पर
वो बाते करता है
हवा से
हवा जो निकल जाती है
छू कर
घर हमारा
पूछती है पता तुम्हारा
फिर न जाने
क्या पा कर
छुप जाती हैं
दौड़ कर
उसी पेड़ के पत्तों में
हमारी आस
फिर कुंवारी रह जाती है।

(4)
मौन

तुम पेड़ को
अपनी नज़र से देखो
यह अधिकार
तुम्हारा अपना
पेड़ को झाड़ कहो
शायद यह अधिकार
तुम्हारा अपना नहीं।


तुम सुरज को सुरज
न कह सको तो
शायद मौन रह कर
बेहत्तर उत्तर हो
ढूढ़ सकते हो
जैसे एक कर
मौन रह कर
जान जाती है
कायनात की सारी हकीकत।