रविवार, मार्च 30, 2014

बोलो ; चाहे मौन रहो

बहुत दिन हुए
तुम छोड़ गए 
चलो आज तुम्हें
आया हुआ मान कर
हमारी स्मृतियों से 
तुम्हारा स्वागत करुं !

तुम पास नहीं हो
फिर भी
तुम्हारे पास होने का
ऐहसास कर लूं
तुम हाथ न आओ
तो भी
तुम्हें बांहों में भर लूं !

तुम कुछ मत देखो
फिर भी मैं तुम्हें
देखता हुआ देखूं
तुम बोलो नहीं
फिर भी मैं तुम्हें
बोलता हुआ सुनूं !

तुम चाहे मौन रहो
मगर एक बार फिर
उसी तरह पुकार लो
जैसे पुकारा था
भीगने से बचने के लिए
माघ की बरसात में !

व्यर्थ में अनर्थ

बातों ही बातों में
अर्थ ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
जो व्यर्थ ही
ढूंढ़ लाए अनर्थ
आज के समय
खुद को वही
समझता है समर्थ !

ऐसा समर्थ
स्वयंभु समझदार
भूल कर अपने
विनाशकारी भेद
ढूंढ़ता रहता है
दूसरों के कपड़ों में
छुपे हुए छेद !

इतिहास गवाह है
समर्थ ही करते हैं
व्यर्थ में अनर्थ

मुझे पुरुष करती हुई

उस ने दिन कहा
दिन लगने लगा
उस ने रात कहा
रात उतरने लगी
उस ने कहा वसंत
वसंत छाने लगा
उस ने फूल कहा
फूल खिलने लगे
महक पसर गई
मेरे चारों ओर
सब कुछ होता रहा
उसी के कहने पर
हर दिन
हर पल !

अब वह
उदास और मौन है
अब वैसे नहीं हैं
रात और दिन
नहीं है वसंत में
वैसी धमक
गंधहीन हो गए
सारे फूल !

यूं ही नहीं हो गई
वह अर्धांगिनी
सच है
वही तो है प्रकृति
मुझे पुरुष करती हुई !

कुछ तो बोल

चट्टान तोड़ कर भी
फूट जाते हैं
कोमल बिरवे
झूमने लगते हैं
हो उन्मुक्त
खिल जाते हैं
उन पर पुहुप
बिखेर देते हैं वे
चारों दिशाओं में
अंतहीन गंध !

तुम तो
पाषाण भी नही हो
फिर क्यों नहीं फूटते
तुम्हारे मुख से
दो मीठे बोल
कुछ तो बोल !

थमेगा नहीं समय

समय तो चलता रहा
अपने वेग से सतत
न ठहरा कहीं
न कटा किसी से
हम ही पालते रहे
समय को ले कर
अपने-अपने भ्रभ ;
थम गया समय
निकल गया समय
कट गया समय
या कि कट नहीं रहा
आज कल समय !

कितने आए
कितने ही चले गए
समय का रोना रोते हुए
इसी तरह हम भी
चले जाएंगे एक दिन
समय तो रहेगा फिर भी !

हमारे कर्म लग जाएंगे
चलते समय के हाथ
जिन्हे वह ढोएगा
अपने अदृश्य कंधों पर
तब होंगे नए लोग
समय पर चर्चा करने वाले
जो लगे होंगे हमारी तरह
समय का रोना
इसी तरह रोने में
अपने-अपने धंधों पर
सतत लगे हुए
समय थमेगा नहीं फिर भी !

गमले का पौधा

घर के बरामदे में
एक ओर पड़े
गमले का पौधा
नापना चाहता है
बढ़-चढ़ कर 
अपने ऊपर का आकाश
मगर बहुत लाचार है
सीमाओं के बीच
जो नहीं है
उसकी वांछनाओं में ।

वह
उतना ही बढ़ पाता है
मिलती है जितनी
उसे जमीन गमले में
जितना मिलता है
आकाश उसे
उतने ही धारता है
हरित पल्लव ।

पौधों जैसा ही है
गमले में लगा पौधा
हरा-भरा
पुष्पों से लकदक
फलों का मगर
नहीं कर पाता वरण ।

पौधे को यह ळाचारी
दी है बटौर कर
उसके मनोरम रूप ने
या फिर
मेरी आंख में था
सपना कोई जंगल का !

. मन में हो कुछ

मन में हो कुछ 
कहने की हो इच्छा 
सुनने को भी हो 
अगर कोई आतुर
तो जरूरत नहीं होती
भाषा में व्याकरण की
लिपि में बंधे
स्वर और व्यंजन की ।

मन से मन को संदेश
किसी भाषा से नहीं
ऐषणाओं से जाता है
भाषा तो ढोती है
इन ऐषाणाओं को
जगत में सदियों तक
किसी के चाहने
या न चाहने पर भी ।

शनिवार, मार्च 29, 2014

थार में सड़क

न बारिश थी
न था पानी
फिर भी
ऊग आई सड़क
निर्जन थार में ।

थार से पार
निकल गई सड़क
जिस पर चल कर
आया नहीं कोई
आया तो रुका नहीं
गए मगर बहुत
अपने पराए हो कर
फिर आई बरसात
आता ही रहा
आंखों से पानी ।

मेरे मन में डर

मन में उपजा
आता है बाहर
पा कर अवसर 
हो जाते हैं घोषित
वे शब्द अपराधी
जो लाते हैं ढो कर
मनगत को बाहर ।

मन से मुक्त हो कर
मनगत देने लगती है
वांछनाओं को आकार
इन आकारों के आगे
फिर मर जाते हैं
न जाने कितने मन ।

कुछ कहे
उसका मन नहीं था
मैंने रख लिया
बिना सवाल किए
आज उसका मन
मेरा तो मन
मर ही गया था
मौन रह कर
आती कैसे
मनगत बाहर ।

उसका मन
होने को अभिव्यक्त
बटोर रहा है
उपयुक्त शब्द
मेरे मन में डर है ;
कहीं वे गालियां न हों !

होली के रंग

1.
हम रंगे थे
उनके रंग में
फिर भी
वो आए
हमें रंगने
रंग पर रंग
चढ़ता कैसे
आगे बढ़ कर
हम ने
उनको रंग लिया
अपने ही रंग में !
*
2.
गांठ से
न लगा दाम
फिर भी
हो गया काम
क्या हुआ
मत पूछो
हाल उनका
दिल तो
काला ही रहा
पराए रंगो से
पुत-पुत कर
चेहरा हो गया
लाल उनका !
*

दिन में नहीं शुभ-अशुभ

एक ने कहा
नहीं होता शुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ बुरा
मृत्यु भी तो
मिली होती है
किसी न किसी को
हर दिन !

दूसरे ने कहा
नहीं होता अशुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ शुभ
जन्म भी तो
हुआ होता है
किसी न किसी का
हर दिन !

तीसरे ने कहा
सारे के सारे
शुभ-अशुभ घटते हैं
इन्हीं सात दिनों
माह-वर्ष
दशक-सदियों
युग-युगान्तरों में
जो चलते रहते हैं
अपनीं धुन में
अटकता-भटकता तो
महज जीवन है !

मैं
साथ हूं
उस तीसरे आदमी के
जो देख रहा है
शुभ-अशुभ को
अपनी देह में
भटकते हुए
और निकल रहा है
समय उसके पासंग से !

घोषणा

एक दिन
हुई आकाशवाणी
मिलेगी सब को
एक-एक छत
पूरे कपड़े
दो वक्त रोटी
मगर आज भी
ना रोटी है
ना तरकारी है
लगता है
घोषणा सरकारी है !

सड़क पर लड़कियां

छोड़ पगडंडियां
जब से आई हैं
सड़क पर लड़कियां
तब से गुमसुम हैं
ठहर गए हैं
गांव और ढाणीं
बहक बहक गए हैं 
शहर के गली मोहल्ले !

पगडंडियों से उतर
सड़क पर चढ़ी
चौके तक पढ़ीं
हर रोज विज्ञापनों में
दिख रही हैं लड़कियां
जिन चीजों को
बनाया-पकाया
या देखा नहीं कभी
उनकी छवि के साथ
वही अनजानी चीजें
खूब बिक रही हैं ।

शहर की लड़कियां
पूछती हैं उन से
गेहूं का पेड़
कितना बड़ा होता है
लाल मिर्च की बेल
कितनी लम्बी होती है
गांव में कहां से आते हैं
हारा-मटका और तंदूर
शहर से गांव
क्यों होते हैं दूर
गांव की लड़कियां
हंस कर टाल देती है
सवालों के उत्तर
मानो बचा लेती हैं
अपने गांव को
अपने भीतर ।

शहर की लड़कियां
हंसती हैं उन पर
अज्ञानी समझ
देती हैं सलाह
कुछ पढ़-लिख कर
एग्रीकल्चर में
एम.एस.सी. कर लो
सब जान जाओगी !

गांव की लड़कियों के
मस्तिष्क में सुरक्षित हैं
आज भी पगडंडियां
जिनके सहारे पहुंच कर
अपने भीतर
जी लेती हैं अपना गांव
कोई भी पगडंडी
नहीं जाती
शहर से गांव तक
इस लिए
शहर की लड़कियों के
मस्तिष्क में कहीं भी
नहीं होता गांव !

बच्चे और बंदूक

अच्छी लगती है
बच्चों को बंदूक
बच्चे चाहते हैं
बंदूक से खेलना ।

बच्चे जानते हैं
सीमा पार भी हैं
हमारे जैसे बच्चों के
बहुत सारे पापा
इस लिए
बच्चों को कभी
नहीं लगता अच्छा
कि कोई और चलाए
धांय-धांय बंदूक
जिस से मर जाए
किसी के पापा जी ।

बच्चे चाहते हैं
खिलौनों में ही रहे
टैंक और बंदूक
जिन्हें वे ही चलाएं
चलाएं तो चलाएं
नहीं तो रूठ कर
तोड़ दें सारी बंदूक !

पीले दांतों वाली लड़की

लड़की की किताब में
पाठ है पानी का
वह सीखती है ;
पीने का पानी
साफ होना चाहिए
फ्लॉरायडयुक्त पानी से
पीले हो जाते है दांत
पाठ के बाद सवालों में
एक सवाल उसका भी है-
स्वराज के बाद भी
साफ क्यों नहीं है पानी
क्या मर गया है
कर्णधारों का पानी ?

तिरंगा हाथ में लिए
गांव के स्कूल में
इस बात पर
हंसना चाहती है
पीले दांतों वाली
अल्हड़ लड़की
मगर हौंठ भींच कर
छुपा लेती है मुखड़ा
चुन्नी के पल्लू से ।

https://www.youtube.com/watch?v=TtjJsG48JEs&feature=youtu.be

https://www.youtube.com/watch?v=TtjJsG48JEs&feature=youtu.be

दुनिया में दुनिया

दुनिया जो लगती है 
उसे बहुत छोटी
वह दुनिया तो 
आज भी उतनी ही है
जितनी थी कभी
लगता है वह आदमी
बहुत बड़ा हो गया
या फिर वह
आकाश में खड़ा हो गया ।

* नारी *

हुआ होगा
जीव का जन्म
पहली बार
जल के किनारे
हरी काई से
पुरुष को तो
किया है पैदा
नारी ने ही
हर बार !
*

* धरती *

उस को
धरती हमारी
लगती है एक गांव
उसका शहर
किसी और ही
आकाशगंगा में है 
शायद !
*