शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

ओम पुरोहित ‘कागद’


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शनिवार, जनवरी 22, 2011

ओम पुरोहित"कागद" चार हिन्दी कविताएं

चार हिन्दी कविताएं


* द्वंद्व *

जब तलक
वर्ण छितरे रहे
न बटोर सके
मूरत अमूरत संवेदनाएं !

जब से लगे हैँ बनाने
अपने अपने समूह
उतर आए उनमेँ
दृश्य-अदृश्य-सदृश्य
आकार-निराकार
उभरने-झलकने लगे
सुख-दुख-मनोरथ
आकांक्षाएं-लालसाएं
द्वंद्व-युद्द
अकारण सकारण सकल !


समवेतालाप
और एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !

* सम्बन्ध *

टूट कर
अलग हो जाए पत्ता
मगर
एहसास रहता है
शेष शाख पर
सम्बन्धोँ के
अतीत होने का !


थे जो कभी
साकार मुखर
आज निराकार
धार असीम मौन
स्मृतियोँ मेँ
फिर फिर से
लेते हैँ आकार
बतियाऊं कैसे
स्मृतियोँ के एहसास से !


सम्बन्ध नि:शब्द जन्मे
नि:शब्द रहे
नि:शब्द ही
कर गए प्रयाण
अर्थाऊं कैसे
असीम मौन औढ़ कर !


* फासले *

कदम हम चार चले
सामने तुम्हारे
तुम भी चले
कदम चार
मगर
अपने ही पीछे !
यूं न कभी
अंत हुआ सफर का
न फासले ही कम हुए !


आहटोँ पर
कान लगाए
चलते रहे
चलते रहे
न बतियाए
किसी पल
सफर के बीच
पड़ाव तलक
न आया जो कभी !


बस
परस्पर मुस्कुराहटेँ
ढोती रहीँ
अनाम सम्बन्धोँ को
हमारे बीच
अनवरत !

* काण *

रात भर
बात बेबात
जागने वालोँ को
क्या और क्योँ
अलग से विशेषण दूं
दोस्त कह दूं तो भी
तराजू के पलड़ोँ मेँ
काण तो दिख ही जाएगी !

तुम कहो तो
तुम्हेँ "मैँ" कह दूं !