बुधवार, मई 30, 2012

भीतर का दर्द

भीतर का दर्द
========

भीतर के दर्द की
आती है जब उबाक
छूटता है खाना-पीना
बाहर तो बहुत कम
मगर भीतर ही भीतर
टूटता है बहुत कुछ ।

मीतर पड़ा दर्द
तोड़ता है खुद को
आते ही बाहर
बनता है तमाशा
भीतर से अधिक
बाहर है निराशा !

मेरे दर्द
मेरा अपना है तू
भीतर ही ठहर
मैं ही सुलाऊंगा तुझे
दे कर थपकियां !

दो कविताएं

 
मेरे सोच की गली
मेरे सोच की हर गली
जा कर तेरी बस्ती में
क्यों हो जाती है गुम ।

तेरी बस्ती से कभी
निकल कर कोई गली
आती क्यों नहीं इधर ।
*
उन के ऊंचे भाव
===========

आते उनको दाव बहुत हैं ।
दिल में इस के घाव बहुत हैं ।।
जब चाहें कर दें कत्ल मेरा ।
मरने का भी चाव बहुत है ।।
अपनी कीमत ख़ाक बराबर ।
उनके ऊंचे भाव बहुत हैं ।।
अपनी आदत खुल कर कहना ।
उनके यहां छुपाव बहुत है ।।
जब भी खाते हक़ ही खाते ।
हक़खोरी में हाव बहुत है ।
अपना मत जो उनको सौंपा ।
अब जनमत का ताव बहुत है ।

बोल बता

बोल बता
======


हम सब यकसां
यकसां आए धरा पर
धरती ओ आकाश
अन्न-जल-हवा सांझी
सांसें अपनी-अपनी
लेते जेसे तैसे !

आंख मींच कर
रोटी छीनी
पानी झपट सारा
सांस हमारी
गिरवी तेरे
तेरे जुल्मों के आगे
क्यों नहीं वश हमारा ?

आज धरा पर
तू ही डोले
आंख मूंद कर
लेता नभ में झोले
बोल बता
कहां है हिस्सा मेरा
बिना खटै ही
हो गया कैसे तेरा ?

धरती के कौन हैं पेड़

धरती के कौन हैं पेड़
=============

पुष्प का सुख
टहनी को कम
फिजाओं को जादा
मिलता है
अज्ञात देव-दानव
ज्ञात प्राणी
सब भोगते हैं
सुख पुष्प का !

पुष्प का जन्मदात
पोषक निरीह पेड़
झेलता है वियोग
उम्र भर
इस दंश का
अपने वंश का !

कल फिर खिलेगा
महकदार सुर्ख पुष्प
इसी आस में
तना रहता
अपने तने पर
अपनी जड़ों पर ।

पेड़ जानता है
कल देखना है
यदि अनुकूल-सुखद
तो जरूरी है
जड़ों के साथ
तने पर तने रहना
वह यह भी जानता है
धरती ही रचती है
सकल सुख मुझ में !

इसी लिए
झड़ते पुष्प-पत्ते देख
मौन है पेड़
फिजाएं नहीं जानती
इस धरती के
कौन हैं पेड़ !

स्मृति देती है तनाव

 
स्मृति देती है तनाव
==============
सागर की गहराई
अथाह जलराशि
नहीं करती परेशान
किनारे देते हैं तनाव
कि पार होंगे कि नहीं
कि कहीं डूब न जाएं
उतर भी लें यदि
उस गहराई में
रम भी लें आकंठ
तब भी
किनारे छूने की चाह
बनाए रखती है तनाव
जैसे कि
मिलने और बिछुड़ने को
भूल कर भोगते हैं हम
इसके बीच का समय
क्या जरूरी है
याद रखना उन क्षणों को
जिनमें हुआ था
मिलना - बिछुड़ना
जिनकी स्मृति
दे ही जाती है तनाव ।

गुरुवार, मई 24, 2012

पंद्रह हाइकु

हाइकु ही हाइकु
===========


1.
मन की बात
मन से बोला मन
हो गई प्रीत !
2.
खुली आंख में
बही नदी प्रीत की
डूबे प्रीतम !
3.
उघाड़ी आंख
टपक गया आंसू
हो गई प्रीत !
4.
तनहाई में
खिल आई मुस्कान
छलकी प्रीत !
5.
भाए दर्पण
भोजन-पानी छूटे
बहकी प्रीत !
6.
डालते रंग
लाल-पीला-नारंगी
भीतर काला ।
7.
मन चंचल
चलाए पिचकारी
बोलते रंग ।
8.
उजला तन
मन मे मलीनता
खेलो होली ।
9.
दिखते अंग
भूले रंग सकल
होली तो हो ली ।
10.
डालते रंग
रंग में है भंग
चेहरे फीके ।
11.
उड़ती देख
चेहरों की रंगत
खुद को छोड़ !
12.
जिंदा आदमी
मुरदे सा भटके
करो मातम !
13.
चले बाजार
भर थैले में नोट
मिलेगा आटा ?
14.
मंदिर में जा
बन गया देवता
था तो पत्थर !
15.
रोटी महंगी
घर नहीं पकती
कपड़ा दूर !

o
ओम पुरोहित"कागद"
24-दुर्गा कोलोनी
हनुमानगढ़ संगम-335512
[ राजस्थान ]

रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

मौसम बदलना होगा
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मन नहीं था
फिर भी सोचा
नई बात मिले तो
आज फिर लिखूं
कोई नई कविता !

कुछ भी न मिला
पत्नी के वही ताने
चीज न लाने के
मेरे वही बहाने
बजट में भी तो
कुछ नया नहीं था
जिस को पढ़-सुन
बैठ जाता सुस्ताने
मीडिया ओ सदनो में भी
पक्ष-विपक्ष की बहस
गरीबी है-
गरीबी नहीं है पर
अंतहीन अटकी है !

एक कांड भूलूं तो
दूसरा सामने आता है
कहां है अब
नानक से सच्चे सोदे
हर सोदे में दलाली
घरों में कंगाली
गलियों में मवाली
सीमाओं पर टकराव
बाजार में ऊंचे भाव
राजनीति के पैंतरै
नेताओं के घिनोने दांव
आंतो की अकुलाहट
आतंकी आहट
दिवसों पर सजावट
सब कुछ वैसा ही तो है
जब मैंने लिखी थी
पहली कविता !

अच्छा-बुरा
घट-अघट सब
ऊपर वाले की रज़ा
बेईमान को इनाम
ईमानदार को सज़ा
सत्ता का गणित साफ
गैरों से सब वसूली
अपनों की माफ
समाजवाद आएगा
राशन और रोशनी
घर-घर होगी
गरीबी मिटेगी
कपड़ा-मकान और रोटी
सब को मिलेगी
कब मिलेगा यह सब
न पहले तय थी
न आज तारीख तय है !

जब सब कुछ
वैसा ही समक्ष
तो कैसे लिखूं
कोई नई कविता
नया कागज
नई कलम
नई तकनीक
तासीर नहीं कविता की
कविता को चाहिए
चेहरे,चाल और चरित्र में
देश की स्थिति विचित्र में
बदलाव की बयार
जो देता है मौसम
हम-तुम नहीं
अब तो दोस्त
मौसम बदलना होगा
फौलाद को भी अब
संगीनों में ढलना होगा !

एक हिन्दी कविता


♥ प्रीत पालता सांचा मोर ♥
=================

सावन आया
मेघा बरसे
छाई हरियाली
फूल खिले
छाई महक
उपवन सरसा
आई तितली
भंवरै बहक गए !

दूर थार में
थूहर फूटा
चर्चा आम हुई
लाली औढ़े
रोहिड़ा बोला
इधर भी आओ
देखो सांझ हुई
ओट नीम की
चकवा चहका
देखो चकवी
बारिश में
जगती भी
बदनाम हुई !

नत्थू के बाड़े
ओट बटोड़े
नाचा मोर
प्रीत पालता
सांचा मोर
सांझ ढली तो
कर गया शोर
पिया-पिया की
वाणी टोर !

एक हिन्दी कविता

0 सड़क कभी नहीं बोलती 0
देहरी को लांघ
सड़क से सरोकार
यानी
असीम से साक्षात्कार ।

अंतहीन आशाएं
उगेरती सड़क
उकेरती अभिलाषाएं
पसर पसर आती हैँ
भटक भटक जाता है जीवन
कभी कभी
लौट भी नहीँ पाता
मुकम्मल सफ़र के बाद भी
कोई अधीर पथिक ।

सड़क चलती रहती है
आशाओँ
अभिलाषाओँ
आकांक्षाओँ को समेटती ।

बीच अधर मेँ
भले ही रुक जाए सफ़र
देह का
जीवन का सफ़र
नहीँ रुकता कभी भी ।
छूटती आशाएं
किसी और कांधे पर
आरूढ़ हो
फिर फिर से
निकलतीँ हैँ सफ़र पर
यूं कभी नहीँ होती खत्म
प्रतीक्षा किसी भी देहरी की
जो झांकती है शून्य मेँ
उसके मुंह के सामने
पसरी सड़क की देह पर
कि आए वह लौट कर
जो निकला है सफ़र पर
दे दस्तक सांझ ढले
लेकिन
सड़क नहीँ बोलती
कभी भी नहीँ बोलती ।

एक हिन्दी कविता

नत्थू गरीब नहीं है
============

नत्थू के पास
नहीं है
गरीबी का प्रमाण पत्र
इस लिए
सरकार की नज़रों में
नत्थू अमीर है ।

नत्थू का चूल्हा कम
दिल जादा जलता है
दिल की दवा
नहीं ले सकता नत्थू
क्यों कि उस के पास
नहीं है हरे रंग वाला
बी.पी. एल. कार्ड !

नत्थू सोता है
अपने परिवार संग
खुले में यहां-वहां
उसका नहीं है
कोई अपना घर
नहीं है अपनी जमीन
इस लिए
नहीं हो सकता स्वीकृत
इन्दिरा आवास !

नत्थू नहीं जाता
नरेगा में खटने
उस के पास नहीं है
जोब कार्ड
जोब कार्ड बने भी कैसे
नाम नहीं है उसका
मतदाता सूची में ।

जब बन रही थी
मतदाता सूची
हो रहा था सर्वे
बी.पी.एल. का
वह परदेश में था
परिवार सहित
मजूरी के लिए
आज लौटा है
खाली हाथ
मगर गरीब नहीं !

उधर सरपंच का
पूरा कुनबा
बी.पी.एल.है
क्यों न हो
आखिर कोठियों वाले
रसूखदार जो हैं
सरकारी अमला
जीमता है उनके यहां
बदले में
इंदिरा आवास
अन्नपूर्णा का अन्न
वृद्धावस्था पेंशन
ग्रीन कार्ड
जोब कार्ड बख्श जाते हैं
उनकी चौखट पर
बर्तन मांज कर
लौट आता है
नत्थू का कुनबा !

एक हिन्दी कविता

*नींद न आने की कविता*
=================

आओ
आज कविता लिखें !

सब्जी-रोटी पर
क्या और कैसे लिखें
दोनों ही नहीं
सभी की थालियों में
थालियां भी तो नहीं
सभी घरों में ।

पानी जमीन पर तो क्यां
आंख तक में नहीं बचा
इस लिए पानी पर
कैसे हो सकती है
कोई पूरी कविता !

क्या कहा
प्रेम पर लिखोगे
कहां है प्रेम ?
देश-गांव-मोहल्ले से
मां-बाप-भाई-बहिन से
अन्य रिश्तेदारों के नाम
कौन बताएगा तुम्हे ?

प्रेम का तो भाई
कायाकल्प हो गया
यह शब्द
प्रेमी-प्रेमिकाओं से
चिपक गया
तुम्हे हो सकता है
तुम से किसे है प्यार
सच बताना
चलो सोच लो खुल कर
प्रेम पर
आज न सही
कल लिख लेना
एक प्रेम कविता !

नत्थू
परेशान हो कर
करेगा आत्महत्या
इस पर तुम
कैसे लिखोगे कविता ?
नत्थू के बाद
सारे सवाल
तुम से किए जाएंगे
मीडिया और पुलिस
तुम्हारे घर तक की
उखाड़ देंगे सड़क
तुम तो जानते हो
सड़क के लिए
नेताओं के यहां
चक्कर लगा-लगा
घिस जाती हैं चप्पलें !

क्या तुम
चप्पल पर लिखोगे ?
अरे छोड़ो यार
चप्पलें आज कल
पैरों में कम
हाथों में जादा
नज़र आती है
वैसे भी
नेताओं की मांग पर
सारी चप्पलें
दिल्ली जाती हैं !

क्या कहा
कविता के विषय पर
उकता गए
अब नींद पर लिखोगे ?
चैन की नींद भला
आती किसे है
आज के दौर में
नींद के अनुभव कहां से लाओगे ?
नींद नहीं आने को
कैसे लिखोगे
नींद आने की कविता में ?

एक हिन्दी कविता

सावन में प्यार
=========

आग लगे
इस सावन को
तन मन के साथ
घर की छत पर भी
चढ़ आता है ।

आसमान में आज फिर
बादल घुमड़ आए हैं
जल्दी खत्म करो
प्यार की बातें
जम कर बरस गया तो
चू जाएगी छत
अकेली है घर में अम्मा
कौन चढ़ेगा छत पर
बिगड़ जाएगी गत ।

तन की नहीं
मुझे चिंता है
चूल्हे की
कैसे जलेगी
भीगी लकड़ियां
धुआंएंगी
अम्मा की आंखों
जो बरस गया मोतिया
थमेगा नहीं
तुम तो थमो
ये प्यार व्यार
फिर कर लेंगे
यदि इस बार
सावन से बच लेंगे !

मुझे बहुत आते हैं
सावन के गीत
फिर कभी सुनाऊंगी
अभी तो छोड़ो
पहले घर बचाऊंगी !

मेहंदी का क्या
क्या सावन
क्या माघ
रच ही जाएगी
गोबर थाप कर
धो लूंगी हाथ
मेहंदी तो
उस के बाद भी
खूब रच जाएगी
तब तक क्या
उम्र निकल जाएगी ।

एक हिन्दी कविता

आदमी के भीतर आदमी
================

आदमी के भीतर
देखे हैं मैंने
कई-कई आदमी
बच्चे से ले कर
युवा और बूढ़े तक
जो ढलते रहते
कामना के अनुरूप।

आदमी के भीतर
दो आदमी तो
दिख ही जाते हैं
एक ही आदमी मेँ
कभी बड़ा आदमी
कभी छोटा आदमी
वह भी
महानता में महान
न्यूनता में न्यून !

मेरे भीतर भी हैं
छोटा आदमी
जो रहता है कुंठित
पाता है खुद को
शोषित और दमित
इस आदमी से
बहुत डरता हूं मैं
तुम भी डरो
यही लाएगा कभी
राख में से ढूंढ कर
दहकती चिनगी
फिर पता नहीं
किस-किस का क्या-क्या
कर देगा भस्म !

वैसे
मेरे भीतर के
बड़े आदमी का भी
खतरा कम नहीं है
आंके बिना खुद को
जीता है भ्रम में
गड़ता है शर्म में
मगर डरता है श्रम से
हिमालय जैसा
दम्भ इसका
कहीं अडिग न रह जाए
ये देखता रहै
और
नदी पास से निकल जाए ।

एक हिन्दी कविता

मेरे भीतर बैठा कोई
=============

ना करता है
ना भरता है
मेरे भीतर बैठा कोई
नित "मैं-मैं" करता है !

देह धारती
सुख-दुख सारे
मन तो
माध्यम बनता है
खोल अवचेतन की
जूनी गठरी
घातक सपने बुनता है ।

खुद ही कहता
खुद ही सुनता
देह दौड़ाता
संग मेँ अपने
अपनी राह चला कर
उसको छलता रहता है।

खुद न दिखता
कभी किसी को
रखता चिंता
रूप सौंदर्य की
दर्पण के आगे
देह की निंदा करता है ।

उस के हाज़िर
देह भी पागल
दिन भर
डरती रहती है
साफ पता है
देह तो जिन्दा
वो ही मरता रहता है ।

[ललित]


.
दिल का मामला
॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥

आप ने बहुत कुछ पढ़ा होगा । क्या कभी किसी का दिल पढ़ा है । जी हां , दिल केवल लगने लगाने की चीज नहीं है । दिल पढ़ने की भी चीज है । वैसे बीवियां इस काम में दक्ष मानी गई हैं मगर वे ऐसा भी पढ़ लेती हैं जो दिल में होता ही नहीं । इस लिए दिल वाले भी उन से घबराते हैं । समझदार लोग तो शादी से पहले ही अपना दिल किसी को दे देते हैं । इस "किसी को" होने वाली पत्नी भी हो सकती है । मामला तो दिल आने का है ना , किसी पर भी आ सकता है ।
गुरदास मान ने तो "दिल दा मामला " गा ही दिया । कई दिल का मामला लिए बैठे हैं । झमेले में हैं कि दिल दें या न दें । कुछ मेरे जैसे भी हैं जो सोचते हैं कि दिल दे दिया तो सांस कैसे आएगी ? पंसलियों में धड़केगा क्या ?
दिल तो फिल्मों में खूब टूटता है । दिल के हज़ार-हज़ार टुकड़े हो कर बिखर जाते हैं । कई बार टूटा हुआ दिल फिर से जुड़ भी जाता है । नत्थू की बीवी छोड़ कर भाग गई । बेचारे का दिल टूट ही गया । वो सुबकते सुबकते कहता है ,हरामजादी का दिल ही काला था । कुछ ने कहा वह कलमूही दिल जली थी । हमेशा धनी दिलदारों की बातें करती थी । नत्थू ने थाने में रपट लिखवाई तो पुलिस वालों का दिल नहीं माना कि कोई अमीरजादे ने उसकी बीवी को भगाया है ।
दिल खुश भी होता है । बल्लियों नाचता भी है दिल । दिल तो झूमता-गाता भी है । दिल उदास भी होता है। दिल के आंख भी होती है । इसी लिए दिल रोता भी है । कई बार तो दिल खून के आंसू भी रोता है । दिल पसीज भी जाता है । हमारा भी दिल पसीज गया था सो बीवी को दे कर टंटा मिटा लिया।
दिल एक मंदिर है । दिल का देवता भी सुना होगा । दिल पापी भी होता है । दिल अपना और प्रीत पराई के तो बहुत किस्से सुने होंगे ?
दिल एक खिलोना भी होता हैं । दिल का खिलोना टूट भी जाता है । दिल मान भी जाता है और रूठ भी जाता है । दिल बहल भी जाता है और फुसल भी जाता है । दिल लग भी जाता है तो कई बार दिल उखड़ भी जाता है । दिल की बात भी दिल में ही रह जाती है । दिल का सौदा भी होता है । दिल के सौदे में मगर उधार नहीं होती । दिल का सौदा खरा-खरा होता है । दिल दे जा ते दिल ले जा । चाहो तो अमीर का दिल तोड़ दो । पूरी छूट है लेकिन किसी गरीब का दिल मत तोड़ना । एक बाताऊं , दिल भर भी जाता है और मर भी जाता है । ध्यान रखना कोई बात अपने दिल पर मत लेना । दिल पर चोट भी लगती है जिस से वह कभी नहीं उभरता । दिल भर चाहे जाए मगर दिल को मरने मत देना ।

एक हिन्दी कविता

रात मगर छोटी है
===========

मैंने क्या सोचा
रात भर
यह बताने के लिए
पूरा दिन पड़ा है ।

दिन के उजाले में
दिखते हैं
सवाल दर सवाल
न समाधान दिखता है
न उत्तर मिलता है ।

बच्चों के सवाल हैं
पहले मुर्गी आई
या फिर अंडा
धरती गोल क्यों है
शिक्षक का सवाल है
कब मिलेगी पगार
दोनों के सवाल
गुंथ जाते हैं परस्पर
उत्तर से पहले ।

घर में
अम्मा चीखती है
अबे ओ मास्टर
जरा सोच
किसी के घर में
जब जुड़ता नहीं कुछ
तो क्यों पढ़ाते हो
अंक गणित
क्यों बढ़ रही है
गरीबी की रेखा
बताता क्यों नहीं
तुम्हारा रेखा गणित ?

मजदूर का सवाल
थोड़ा पेचीदा है ;
मूर्तियां कभी भी
कुछ नहीं खातीं
क्यों लगाते हो भोग
इधर देखो
मैं खाता हूं
मुझे लगाओ
भूख से उत्तपन्न
कट जाएगा रोग ।

सवालों की गठरी
बड़ी है बहुत
रात मगर छोटी है
गुजर जाती है
आंखों में उतर कर
भोर में उगे-उठे
ताजा सवाल
फिर से बटोरने !

एक हिन्दी कविता

मन के पीछे आंख
===========

साकार है
सकल जगत
आंखें देखती हैं
इस मेँ
घट-अघट का
दृश्य पूरा
छूटता नहीं कभी
प्रत्यक्ष अधूरा ।

मन जो बैठा
भीतर मेरे
नित प्रति नित
उकेरे चित्र
विचित्र मनभावन
छूटे जब भी कोई
स्वपन अधूरा
आंखें रोना रोती हैं ।

नींद आंख का
अपना कौशल
भन के पीछे
रात-रात भर
झांक शून्य में
अपना होना खोती हैं ।

होना जाना
तन का कौशल
भ्रम पालते
मन -चितवन
चित्त के आगे
तन भी हारे
मौन आंखो की
इस में देखो
कितनी लाचारी है ।

बिछी खाट पर
देह पड़ी है
मनवा डोले बाहर
मन के पीछे
आंख चली है
पलक उघाड़े
खड़ी नींद को
भीतर कौन पसारे !

एक हिन्दी कविता

याद करो बीज को
============

आंख बंद कर लेने से
बदल नहीं जाएगा दृश्य
जो बन ही गया है
तुम्हारे चारों ओर
इस के लिए तो मित्र
रखनी ही पड़ेगी
आंख खुली हर पल !

प्यार या मित्रता
होती नहीं
मात्र उच्चारण से
इस के लिए
बहुत जरूरी है
विश्वास के साथ
परस्पर सक्रियता !

तुम्हारे आस पास
उगी है यदि खरपतवार
नफ़रता व शत्रुता की
इस के सकल दोष
मत ढ़ूंढ़ो जमीन में
याद करना होगा
उस बीज को
जो बोया है तुम ने
या फिर
समझने होंगे
रुख हवाओं !

एक हिन्दी कविता

क्या तुम मुस्कुराई थी
===============

आज
चांद की रंगत
कुछ जादा ह
बदली-बदली है
शायद
तेरे घर के ऊपर से
हो कर आया है ।

खुले आसमान में 
बदलियां बेखौफ
भाग रहीं हैं
उसकी मोहक मौन
मुस्कान छूने
दौड़ तेज है परस्पर
मगर कुछ आगे है
आज चांद उन से
आतुर है शायद
मुझे कुछ बताने को !

सच बताना
क्या तुम आज
मुस्कुराई थी
शून्य में झांक कर
जिसे देख पहली बार
मैं भी भागा था
आंगन से छत की और !

एक हिन्दी कविता

मैं बोला तो
=======

मैं अपने में ही
व्यस्त-मस्त रहा
तब लोगों ने कहा
इसे परवाह नहीं
किसी की
इसकी बला से
कोई जीए या मरे
बड़ा घमंडी है ये ।

मैं बोला तो
लोगों ने कहा
बहुत बोलता है
हर जगह
टांग अड़ाता है
पूछता कौन है इसे
बेवजह उठाए घूमता है
ज्ञान व सलाह की पांड।

झगड़े में
कभी नहीं पड़ा
अपना हक लुटता देख
मौन रहा तो
लोगों नै कहा
यह तो सूधी गाय है
औरतों जैसा आदमी है
इस से क्या डरना ।

अब जब मैं
अपना हक मांगने
मुठ्ठियां तान कर
दांत पीसता
गरजता-दहाड़ता
मैदान में आया हूं
लोग कह रहे हैं
यह कोई आदमी है
निरा स्वार्थी है
पशु है पशु
फालतू में भौंकता है
इसका कोई ज़मीर नहीं।

एक हिन्दी कविता

कौन है वो
=======

खुली आंख
दिखता नहीं
दिखता है तो
रुलाता है ।

बन्द आंख
दिखता है
बार-बार
गुदगुदाता है !

कौन है वो
जो रमता है
भीतर मेरे ?

एक हिन्दी कविता

जागा सपना
========

भरी दुपहरी
सुन दस्तक
जागा सपना
उभरी छवि
तिरछी चितवन
देखूं उसको
यक-ब-यक
उचक खड़ी
तपते आंगन
नंगे पांव
उठाए ऐड़ी
चल पड़ी !

सूने दर पर
हवा नाचती
प्रीतम अपना
किवाड़ रिझाने
मेरे मन के
बंद किवाड़े
खोल नचाने
दिखे न आते
पगथलियों में
उभरे छाले
दिल पर
मंडते जाते हैं
आओ कभी
दर्शन दे सहलाने !

एक हिन्दी कविता

सजल दो नयन
==========

कोई तन को
छू गया
कोई मन को
तन को
छूने वाले
वसूलते हैं
प्रति पल
उन क्षणों का
समूल हिसाब ।

मन को
छूने वाले
आए नहीं
कभी लौट कर
वे टांग गए
अपनी छवि
कहीं कौने में
मन के भीतर
जिसे निहार
होते हैं सजल
दो नयन
कभी-कभी एकांत में ।

एक हिन्दी कविता

.
बस इश्क करेंगे
==========

आओ
खाएं कसम
न जीएंगे
न मरेंगे
बस
होगा जितना
इश्क करेंगे !

पहला इश्क
धरती के नाम
जितना काटेंगे
उतना बोएंगे
जब भी कटेगा
कोई पेड़ हरा
खून के आंसू रोएंगे !

दूजा इश्क
मुल्क के नाम
शान न इसकी
जाने देंगे
पैसा इसका
ना खाने देंगे
रिश्वत को
अखाद्य बनाएंगे ।

तीजा इश्क
नत्थू के नाम
जितना लेंगे
उस से काम
उतना दाम धरेंगे !

चौथा इश्क
अजन्मों के नाम
उनको भी देंगे
आने का अधिकार
कन्या भ्रूण बचाएंगे
जो जाई बेटी
घर अपने
कांसा थाल बजाएंगे !

एक हिन्दी कविता

.
तावड़े में टसके रामप्यारी
=================

तपा सूरज
झुलसी धरती
तपी गैंती
तपी तगारी
फिर भी चलता
काम सरकारी
तपे तावड़े
नत्थू खोदै
तपी तावड़ै
लाल तगारी
भरती माटी
जोड़ायत उसकी
टसके रामप्यारी !

टूटे तन
लगी प्यास तो
देख खेजड़ी
बैठ गई सुस्ताने
छाता ले कर
बाबू आया
तपता गुर्राया
काम करो
छोड बहाना
लगती जादा
तुझ को गर्मी
कल से मत आना !

टंगी खेजड़ी
छागळ रीती
पानी की सब
बातें बीती
आंखो टपका
नत्थू बोला
भोली-गैली
जोड़ायत मेरी
माफ करो
साहब इसको
काम करेगी
जम कर सारे
मानेगी सब
इशारे थारे !

हाथ जोड़ कर
नत्थू बोला
गर्मी का क्या
पड़ती रहती है
सूरज का क्या
तपता रहता है
धरती को ये
नित झुलसाते हैं
आग पेट की
इन से भारी
नहीं रुकेगा
काम सरकारी
कंठ हमारे
जब तक गीले
नहीं पड़ेंगे
हम दोनों ढीले

एक हिन्दी कविता

.
इश्क का फलसफा
= ♥ = ♥ = ♥ =

दिल का दर्द
होता है कैसा
न जाना कभी
सुना था
दर्द-ए-दिल होता है
इश्क करने वालों को
हम ने ना किया
किसी से कभी इश्क
हम ने माना था
इश्क में है रिश्क !

इसी चक्कर में
हम कर गए पादान
उमर के पच्चपन पार
हम समझ न पाए
उलझन बन गई
आज ये भारी
अब क्यों कर हुआ
बेवज़ह दर्द-ए-दिल ?

यह फलसफा
चढ़ती उमर का
एक छोटा बच्चा
हमें समझा गया ;
अंकल आपको
अपनी ज़िन्दगी से
अब प्यार आ गया
आप जीना चाहते हैं
कुछ साल और
लगता है देह को
अब रूह का
अंतिम समाचार आ गया !

एक हिन्दी कविता

उल्झन
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कैसी अजीब उल्झन है ;
बोलूं तो
सो नहीं पाता
मौन रहूं तो
नींद नहीं आती
आंख बंद करूं तो
उभरता आता है
अक्स तुम्हारा
फिर तो
जागना ही पड़ता है
रात-रात भर !

न तुम जागरण हो
न तुम नींद
न हो माध्यम
न उपक्रम उसका
फिर कौन हो
जो उचकाते हो
आते हो बार-बार
उल्झा हुआ ले कर
सांसों का ताणा पेटा ?

एक हिन्दी कविता

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मेरी माँ कहती है
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आसमान में गर्द
ज़मीन पर ज़लजला
वातावरण में तमस
गलियों में भेड़िए
सड़कों पर लक्कड़बग्घे
ताक में शिकारी
कितना भयानक है
मंजर सामने हमारे
यह तस्वीर अब तो
बदलनी चाहिए
मगर बदलेगा कौन ?

मेरी मां कहती है
तुम नहीं जानते
यकीनन उसे
जो बदलेगा मंजर
वह कौन है ?

थूक बिलोने वाले
भाषणबाज जीभले
नहीं ला सकते बदलाव
वो जो भीड़ में
बैठा है सब से पीछे
मुठ्ठियां तानें मौन
सारा बदलाव
वही नत्थू लाएगा
सुनना वो गीत
भीड़ से उठ कर
जब वो एकांत में गाएगा
देखना एक दिन
यही मरदूद क्रांति लाएगा !
 


एक हिन्दी कविता

  • .
    महासमागम
    ========
    दबा बीज
    उगा बिरवा
    पौधा बिगसा
    हुआ पल्लवित
    पसारी डालियां
    डाली पर
    खिला पुष्प
    महका
    भंवरा बहका !

    महक चुराने
    भटका डाली-डाली
    स्वागत में पुष्प
    लहराए-मुस्काए
    मधुरस दिया परोस
    भंवरे मचले
    खो गए अपने होस !

    प्रकृति प्रफुल्लित
    सजी-संवरी
    दिन-दिन पसरी
    बांटती आभार
    भंवरों संग पुष्पों का
    इस महासमागम से
    पूर्ण हुई मैं आज !
    · · · Thursday at 5:24pm via mobile ·