सोमवार, जुलाई 16, 2012

बाण


बाण

बाण तो बाण है
दोन्यां में हाण है
बाबो पीवै सुल्फी
टाबर खावै गुल्फी !
बाबो टाबर नै मारै
बाबै नै कुणसो मारै ?

संधियों में जीवन

संधियों में जीवन
==========

लगातार कलह
मानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है
परस्पर संवाद रोक कर
आगे बढ़ने के
मार्ग अवरुद्ध करती है
बस इसी लिए
हताशा में
संधिया करनी पड़ती हैं।

संधियों की वैशाखियोँ पर
जीवन आगे तो बढ़ता है
अविश्वासों का मगर
सुप्त ज्वाला मुखी
भीतर ही भीतर
आकार ले कर
भरता रहता है
यह कब फट जाए
आदमी इस संदेह से
डरता रहता है ।

इसी बीच
अहम और वहम
आपस में टकराते है
इस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
संधियों पर खड़े
आपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।

बहुत पहले
कह गए थे रहीम
"धागा प्रेम का
मत तोड़ो
टूटे से ना जुड़े
जुड़े गांठ पड़ जाए "
आज मगर धागे
गांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !

प्यार और प्यास

प्यार और प्यास
==========

कुछ लोग
ढूंढ़ रहे थे
प्यार और प्यास में
एकाकी समानता
कुछ ने तो
कर ही दी स्थापना
इस स्वयंभु सत्य की ।

सत्य जब
छन कर आया
ऐहसास पाया ;
प्यास नहीं है प्यार
प्यास तो बुझ जाती है
मंतव्य पा कर
प्यार मगर बढ़ता है
बढ़ता ही जाता है
मुकाम पा कर ।
प्यास
बादलों की उड़ीक में
धीरज खो गई रेत
उड़ कर हवा संग
पहुंच गई आकाश में
बादलों को नोचने
रेत विहीन धरती
पपड़ा गई
आसमान ताकते ताकते
प्यास भर तो बरस
रेत के समन्दर में !

चिंताएं

*चिंताएं*
कुछ लोग
रोटी के आकार पर
लड़ रहे थे
रोटी हो तो गोल हो
वरना चौकोर परांठा ठीक
कुछ और लोग
रोटी के चुपड़े होने पर
उलझ रहे थे
रोटी हो तो चुपड़ी हो
घी घर का हो
कुछ कह रहे थे
ताज़ा मक्खन ही हो
वरना क्या रोटी ?

रोटी के साथ
सब्जी पर भी
छिड़ गई जंग
कुछ हरी के पक्ष में थे
कुछ पनीर पर अड़े
कुछ सूखी के लिए लड़े
कुछ दाल-मोगर
कुछ बेसन गट्टा-कढ़ी
कुछ चटनियों पर डटे
अंत में सब की बात
करीने से रख ली गई ।

कुछ बेघर लोग
शहर से दूर
इस बात पर
एकजुट एकमत थे
आज की शाम रोटी हो
चाहे किसी भी अन्न की
किसी भी आकार प्रकार की
किसी भी घर-दर की
किसी भी जाति-धर्म की।

टाट-सरकंड़े
पॉलिथिन तप्पड़ की
इन झोंपड़ पट्टियों में
चिंताओं का विषय
घी-सब्जी-चटनी
एक बार भी नहीं बना
जब कि किसी के लिए
नहीँ था बोलना मना !

बात

*सपना टल गया*
कल तुम आईं
नींद टल गई
सपना मचल गया
लो आज फिर
नींद उचट गई
आज फिर
सपना टल गया !

दिन को
दिन के लिए
रात को
रात के लिए
नींद को
नींद के लिए
छोड़ दो अब
बहुत खलल हो गया !

तुम अब
सपनों में आना
छोड़ दो
आ जाओ साक्षात
जमाना बदल गया ।
 बात
.
बात को
बात पर रख ।
हाथ को
हाथ पर रख ।।

ताक़त को
ताक पर रख ।
इज्जत को
नाक पर रख ।।
 

दो कविताएं

*शब्द ढाई*
अथाह गहरइयों से
उतरते हैं शब्द
विचरते हैं
अखिल जगत में
पाते हैं व्यंजना
फिर होते नहीं
नष्ट कभी
जैसे कि
स्नेह प्रीत !

दिल की गहराइयों से
निकले शब्द ढाई
प्यार-प्रीत-स्नेह
एक-एक मेरा
एक-एक तेरा
आधा-आधा
देने गवाही !
 
*बेजुबान पुष्प*

मैंने
नहीं तोड़ा
कोई पुष्प
छोड़ दिया
टहनियों पर
हवा के संग
उन्मुक्त लहलहाने ।

आया कोई
देवप्रिय धर्मपालक
तोड़ कर
देव मूर्ति पर चढ़ाने
चल दिया बेजुबान
लाचार सा पुष्प
बैठ उसकी अंजुरी
कभी नहीं मांगा
बोल पाने का
एक वरदान
देवउपासक ही
पूरते रहे
अपने अरमान !

शब्दों का संवेदन


* शब्दों का संवेदन*

इस ने बोले
उस ने बोले
बोली दुनिया सारी
एक-एक शब्द की
बांध पोटली
ऊंच चले
शब्दोँ के व्यपारी !

तेरे हाथ
कलम लगी तो
बन बैठे तुम व्यवहारी
एक-एक शब्द को
बांच-टांच कर
रच दी माया सारी !

इस माया नगरी में
अब खोये शब्द अमोले
न वो बोले
न तुम बोले
शब्द मांगते अपनी
डूबी आज उधारी
कलम नौचती
कागज बैठी
रोता संवेदन
कैसी ये लाचारी !

माँ की भाषा

*माँ की भाषा*
माँ ने जो दी भाषा
उस मेँ
बहुत मिठास था
अपार था प्यार
सार था जगत का
तभी तो
सिमट आते थे
सारे सुख
सपने जगत के
माँ की गोद में ।

आज हम ने
सीख ली हैं
बहुत सी भाषाएं
भाषाओं पर आरूढ़
फैल गया है जगत
करीने से चहुंदिश
सज गए हैं सुख
मगर नहीं है
माँ की भाषा
तभी तो लगता है
कितने सिमट गए हैं
सुख जगत के !

माँ ने कहा था
जड़ हो या चेतन
सब को करो प्यार
सब भूखे हैं प्यार के
प्यार में बंधा
लौट आता है
सीमाएं तोड़ कर
माँ !
क्यों नहीं लौटी तुम
नहीं दिखा शायद तुम्हें
मेरे परिवेश में
कहीं भी प्यार !

मुझे याद है
तुम ने कहा था
यदि इस घर में
रहेगा सम्पत और प्यार
तभी रहूंगी मैं !

बांझ नहीं है मरुधरा

*बांझ नहीं है मरुधरा*
तपते सूरज का
देख क्रौध अपार
रेत चली रिझाने
चढ़ आई आसमान
ताकि भेज दे
अपना जाया सुत
धरती का बिछुड़ा
बादल भरतार !

जन देगी
धरा रजस्वला
हरियल पूत
पा कर
बूंद भर प्रीत
जानती है रेत
बांझ नहीं है
वियोगन है मरुधरा !
 
दिन की मौत
========

न जाने किस की याद में
गुजर ही गया
एक अकेला दिन
इस रात की तन्हाई में
दिन की मौत पर
बांच रहा है मर्सिया
एक अकेला चांद
मातम पुरसी को
आए हैं तारे अनेक
आसमान रोके बैठा है
आंखो में असीम आंसू
जो झर ही जाएंगे
कभी न कभी !

हद

.हद
आओ तोड़ दें सब हदें
नई बनाएं अपनी हदें
न तुम उस से गुजरना
न मुझे विवश करना
हद की भी हो जाए हद
तब भी हम नहीं,रहे हद

बाल कविताएं

आज बाल कविताएं
====0000====

*बस्ते*
मास्टर जी नमस्ते
कम्प्यूटर हो गए सस्ते
अब तो हटवा दो सरजी
किताब - कॉपी बस्ते !

*होमवर्क*
स्कूल नहीं
वह नर्क है
जिस में मिलता
होमवर्क है !

*आना-जाना*
बाद में आना
जल्दी जाना
सरजी से जाना है
सरजी की मरजी को
हमने भी अपनाना है ।

*शोर*
हम बच्चों से
क्यों बोले बाबा
चुप रहो
मत शोर करो
घर को स्कूल समझ
मत बोर करो
शोर कहीं ओर करो !

*घंटी*
आ गई अंटी
बजा गई घंटी
स्कूल में आए
बबली-बंटी
मर गया नेता
बज गई घंटी !

यादें तुम्हारी

यादें तुम्हारी
-*-*-*-*-*-

यादें तुम्हारी
मीठी हैं बहुत
फिर क्यों टपकता है
आंखो से खारा पानी
जब-जब भी
सुनता-देखता हूं
तुम्हारी स्मृतियों की
उन्मुक्त कहानी !

दिल में
यादें थीं तुम्हारी
जिन पर
रख छोड़ा था मैंने
मौन का पत्थर
इस लिए था
दिल बहुत भारी ।

आंखों में थीं
मनमोहक छवियां
कृतियां-आकृतियां
लाजवाब तुम्हारी
जिनके पलट रखे थे
सभी पृष्ठ मैंने
अब भी चाहते हैं
वे अपनी मनमानी
इसी लिए टपकता है
रात-रात भर
लाल आंखो से
श्वेत खारा पानी ।

हर रात
ओस बूंद से
क्यों टपकते हैं
आंसू आंख से
घड़घड़ाता है
उमड़-घुमड़ दिल
जम कर कभी
क्यों नहीं होती बारिश !
 
.
*मेरा मीत *

चित चुराए
महक तुम्हारी चोर
हवा में बिखेर
पुष्प इतराया
ओढ़ विशेषण
झुक-झुक आया
गया वसंत
तब से मौन
मेरा मीत
मेरे भीतर
अब भी महके
पुष्प बता
अब तेरा कौन ।

पेड़ खड़े रहे

पेड़ खड़े रहे
========

धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।

कितनी ही आईं
तेज आंधियां
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।

खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !
 
*आज जाना*

गांव में गाय ने
खूंटे पर बंधने में
जद्दोजहद की
आखिर भाग गई
बाड़ कूद कर
घूंघट की ओट में
तब तुम
क्यों हंसीं थी
खिलखिला कर
आज जाना
जब चाह कर भी
नहीं लौट सकी
बेटी ससुराल से !

आप से पूछा जाएगा


आप से पूछा जाएगा
===========

बहुत दिन हुए
कदमों में गिड़गिड़ाते
भीड़ के लोग आएंगे
वो हाथ नहीं फैलाएंगे
अपना हिस्सा बताएंगे !

तान कर मुठ्ठियां
बढ़ रहे हैं लोग
मांग कर नहीं
छीन कर खाएंगे अब
अपने हिस्से की रोटियां
जो आएगा बीच इसके
उसकी बिखेरेंगे बोटियां।

उत्तर तलाश लो अभी
आप से पूछा जाएगा
ठाल्लों की तोंद फैली
महनतकश की पिचकी
क्यों कर है बताइए
गरीब भूखा सोया क्यों
जुर्म खोल कर जताइए?
 
भोली बकरी
========

सुन
भूखी-भोली
नादान बकरी
आएगा कोई
दर तेरे
आ कर
तुम्हें चराएगा !

तूं बहुत भोली है
चर ले
चाहे जितना
चरना है
आखिर तो
तुझको मरना है !

पेट की खातिर
तुम ना बोली
भेंट की खातिर
वो तो बोला है
भर ले पेट
जितना भरना है
आखिर तो बकरी
तुझको मरना है !

आदमी और भगवान

आदमी और भगवान
===========

सब कुछ
कर सकता था
संवेदनशील आदमी
कुछ न कर पाया
यहां तक कि
अपना विश्वास तलक
जमा नहीं पाया
आदमी
पत्थर हो गया
पत्थर
हो गया भगवान
भगवान
दिखता नहीं
करता है मगर
सब कुछ
है विश्वास सबको !
देश तुम से नहीं
----------------

नेता जी गरजे
देश आजाद है
तुम नहीं
क्यों कि तुम
देश नहीं हो !

सुन लो
कान लगा कर
देश तुम से नहीं
हम से है
हम, तुम से नहीं
दम से हैं !

वोट ले कर आए हैं
वोट की कीमत
अदा की है
तुम ने भी
वोट डाल कर
अपनी ड्यूटी
अदा की है !

अब तुम
अपने घर जाओ
काम करो और खाओ
हमें राज करने दो
राज-काज में बाधा
अपराध है संगीन
मारे जाओगे !

अब सुनो !
बार-बार तुम
मांग पत्र ले कर
मत आया करो
मांग भरना
हमारा काम नहीं
हम तो राजा हैं
कोई दूल्हे राजा नहीं !
 

सपनों की उधेड़बुन

सपनों की उधेड़बुन
==========

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !

सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !

अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !

अपना घर

अपना घर
======

दिखने में
बहुत छोटा है
मेरा घर
इस में
समा जाती है
सारी दुनिया
मगर
घर से बाहर
रखते ही कदम
आ जाता है परदेस
आता नहीं नज़र
अपना घर !

सोचता हूं
जब आदमी
अपने घर से
दूर हो जाता है
तब वह कितना
मजबूर हो जाता है !

समतल मैदान में
खुले आसमान तले
परिजन के बीच बैठा
कहता है नत्थू
घर के लिए
जरूरी नहीं है
दीवारों पर टिकी
मजबूत छत का होना
जरूरी है
अपनत्व पर टिकी
प्यार-स्नेह
अपनत्व की महक
जो रख सके
बांध कर सब को
अपने सम्मोहन में !

सचमुच
बहुत खुश है नत्थू
अपने घर में
सवाल तो है
भवन की जगह
कब बनाएंगे हम
अपना-अपना घर ?
============
.
कुछ लोग जी रहे हैं
पेप्सी और कोलगेट
बर्गर और चॉकलेट के लिए
नत्थू जी रहा है
बच्चों के पेट के लिए ।
 

आज मूक दर्शक नहीं

आज मूक दर्शक नहीं
============

कुछ लोगों ने
मूंछ के लिए
कुछ लोगों ने
पूंछ के लिए
युद्ध लड़े
तख्त तक
पलट दिए
पा लिए
तख्त ओ ताज ।

उस वक्त
मूंछ और पूंछ विहीन
बहुत से भूखे लोग
दो जून रोटी के लिए
गिड़गिड़ा रहे थे
उन्हें भूख के सिवाय
कुछ नहीं मिला
वे भूख का वरण कर
मारे गए !

आज फिर
वैसे ही लोग
मूंछें मरोड़ रहे हैं
उनके आगे
चालाक-चतुर लोग
पूंछें हिला रहे हैं
आज मगर
भूखे लोग
मूक दर्शक नहीं
मुठ्ठियां तान रहे हैं
पूंछ तोड़ने
मूंछ काटने के लिए
युद्ध की ठान रहे हैं!

शब्द हो गए मौन

शब्द हो गए मौन
===========

चेहरों से
उल्झे चेहरे
शब्दों का
व्यवहार हुआ
खिंचे शब्द
तने , झल्लाए
थमा संवाद
शब्द हो गए मौन !

बाद मुद्दत के
मन के भरमाए
शब्द अबोले
चाहें होना
मुखर बल से
छले गए जो
चेहरों के छल से ।

मन के भीतर
जम कर बैठे
जस के तस
कुछ शब्द संदेही
गूंथे गांठें
इन गांठों को
अब खोले कौन
शब्द साध कर
बैठै मौन !