*बांझ नहीं है मरुधरा*
तपते सूरज का
देख क्रौध अपार
रेत चली रिझाने
चढ़ आई आसमान
ताकि भेज दे
अपना जाया सुत
धरती का बिछुड़ा
बादल भरतार !
जन देगी
धरा रजस्वला
हरियल पूत
पा कर
बूंद भर प्रीत
जानती है रेत
बांझ नहीं है
वियोगन है मरुधरा !
दिन की मौत
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न जाने किस की याद में
गुजर ही गया
एक अकेला दिन
इस रात की तन्हाई में
दिन की मौत पर
बांच रहा है मर्सिया
एक अकेला चांद
मातम पुरसी को
आए हैं तारे अनेक
आसमान रोके बैठा है
आंखो में असीम आंसू
जो झर ही जाएंगे
कभी न कभी !
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