शुक्रवार, जून 21, 2013

आ बैठा सूरज


नहा धो कर
आ बैठा सूरज
मेरे घर 
छत की मुंडेर
करने बात
धरा से
हो गई प्रभात !

आओ
छोड़ें बिस्तर
हम भी बैठें
बीच चौपाल
करें बात की शुरुआत !

करेंगे बात
बात बनेगी
बिन बात
बढ़ेगी बात
बढ़ गई बात तो
नहीं बचेगी कहीं बात !

बढ़ गई धूप
छोड़ें सपने
ढूंढ़ें अपने
गढ़ें संसार
नया नवेला
आओ करेँ
अपनत्व का सूत्रपात !

तोड़ें कारा भ्रम की
करें साधना श्रम की
हक मांगें
हक से अपना
हक से लें हक
हक से दें हक
जग में बांटें
हक-हकीकत की सौगात !

झूठ को मारें
सच को तारें
कांडवती न हों
अपनी सरकारें
जन गण मन की
पूर्ण हो आस अधूरी
छूटें सब मजबूरी
अन्याय अंधेरा छूटे तो
नया सवेरा फूटे जो
थामें हम ये प्रभात !

उतर मुंडेरी
घूमों सूरज
जग का मेटो
सारा तम
मैं को तोड़ो
रच दो हम
अंतस सब के
डोलो तुम
अबोलों में जा
बोलो तुम
अमीर गरीब का
भेद मिटा कर
सब के सिर पर
मानवता का
फिर से रख दें ताज !

*पुरुष का जन्म*



कांसे के थाल 
घनघनाए
चारदीवारी मेँ
ऊंची अटारी पर
पुरुष के जन्म पर ।

स्त्री के हाथोँ का
कोमल स्पर्श
शायद गिरवी था
पुरुष के यहां
तभी तो
थाली पर पड़ती थाप मेँ
पौरुष था मुखर !

उस दिन
दिन भर
बंटी भरपूर
मिठाइयां-बधाइयां
मिलीं मगर पुरुष को !

बाप दादाओँ ने
मरोड़ी मूंछे
चौक चोराहे
नए सम्बोधनोँ पर
भीतर
स्त्री लुटाती रही
ममता
नवजात पुरुष पर !

किन्नर भी
नाचे पुरुष के घर
स्त्री का घर
नहीँ उच्चारा किसी ने ।

क्या होता नहीँ
स्त्री का घर
स्त्री का वंश !

*अपने घर भी हो दिवाली*


फूटे पटाखा
छूटे फुलझड़ी
आतिश जाए आकाश मेँ
हम को क्या पड़ी
दो जून पकें रोटियां
नत्थू-बिजिया सोएं ना भूखे
हंस लें दे कर ताली
अपने घर भी हो दिवाली !

बैंक-साहूकारों का उतरे कर्ज
रोशन जगमग घर मेँ
पसरे ना कोई मर्ज
कांडवती ना हों सरकारें
समझेँ अपना फर्ज
अपने नेता जी की
नीयत ना हो काली
अपने घर भी हो दिवाली !

भीतर देश के
ना हों आतंकी
सीमा पर हो भाईचारा
घर का फौजी भैया
घर मनाए ये दिवाली
अम्मा संग बैठ कर वो भी
पीए चाय गुड़वाली
अपने घर भी हो दिवाली !

घर से निकला
घर को आए
तवे उतरी रोटी खाए
भंवरी-कंवरी हो सुरक्षित
सड़क किसी को न खाए
नोट चले सब असली
एक न निकले नकली
अपने घर भी हो दिवाली !

हक किसी का
छीने ना कोई
राजा पूछे
क्यों जनता रोई
बाजारों मेँ हो
सच्चा सौदा सेवा का
असली पर ना हो
नकली का धंधा भारी
कोई ना करे धंधा जाली
अपने घर भी हो दिवाली !

*प्यासे सवाल*


आकाश अंतरिक्ष में
तना रहा
आगोश में लिए
अंगारो का पितामह
स्वछन्द हठी सूरज !

कभी उतर कर
नहीं आया
तपती धरा के पासंग
हमेशा पैदा किया भ्रम
बड़बोले जगत में ;
वो दूर छू रहा है
आकाश धरा को
चपल जगत ने
खींच भी ली
मनमानी क्षितिज रेखा
सुदूर अंतरिक्ष में
अपने ही सामर्थ्य से !

धरा मौन थी
मौन ही रही
उसकी जाई रेत
गई उड़ कर
अंतरिक्ष मेँ निष्कपट
हो भ्रमित लौट आई
सूरज के तपते मोहपाश से
आबद्ध हो कर
अब पड़ी है
साध कर अखूट मौन
जिस में कैद हैं
अथाह प्यासे सवाल
!

*पंछी को सुन लो*


हिलती शाख
बैठा पंछी
धारे मौन
पंख पसारे
आंखें मूंद !

आंखों में 
नापता गगन
विशालता नभ की
भीतर ही भीतर
करता अवलोकन
तोलता अपने पंख पसार !

आंखों में सपना
नीड़ हो अपना
नाप गगन को
उतरूं शाख
चल पहुंचू निज नीड़
जहां न हो आदम भीड़ ।

यक-ब-यक
उड़ चला
मन उसका
पाने नया आकाश
जिस में न हो
आदम आकांक्षाओं का
यांत्रिक धुंआं
न हो गंध बारुदी
हल्ला गुल्ला
शोर शराबा मनचला ।

हुआ अचानक
एक धमाका
नीरवता तोड़ गया
सुन धमाका
टूटी तंद्रा
खुल गई आंख
सपना टूट गया
पूछो तो जा कर
पंछी कितना टूट गया !

*कुछ हिन्दी दोहे *

झपकी लेत गरीब तो, माया छीने चैन । 
भूखा सोता ठाट से , धाया जागे रैन ।1।
नेता सोता चैन से, ले वोटों की ओट ।
जनता खोले आंख तो , दे वोटों की चोट ।2।
नेता जीता वोट से,खूब छापता नोट ।
नेता खोले आंख तब ,जब जब घटते वोट ।3।
जनता पागल बावळी , भूली अपना जोर ।
खादी चोला पहन कर,नेता बन गए चोर ।4।
भारत जाये भाड़ में , नेता भोगे राज ।
नेता सोता चैन से,जनता ऊपर गाज ।5

**मैं घायल ही ठीक हूं**


कोई आए 
हमारा हाल चाल पूछे
स्वस्थ रहने के लिए
दें शुभकामनाएं
इसके लिए
कितना जरूरी है
हमारा बीमार हो जाना
आज जाना !

आज
ज्यों ज्यों फैली खबर
मेरे घायल होने की
चले आए रिश्तेदार
दूर नजदीक के संबंधी भी
यार अणमुल्ले
नए पुराने
इसी बहाने
हुआ मिलना वर्षोँ बाद !

अब जाना
कितना अच्छा है
भीतर की बजाय
चोट का बाहर लगना
भीतर का दर्द दिखता नहीं
बंटता भी नहीं
होती नहीं दवा दारू
मरहम पट्टी
भीतर के घावों पर
झेलना पड़ता है ताउम्र
भीतर के जख्मों का दर्द !

इस लिए
बहुत रुचता है मुझे
बाहर का दर्द
जिसकी बदोलत
आ जाते हैं कुछ फल-फ्रूट
मुस्कुराते-गंधाते गुलदस्ते
जिन में दिखती है तस्वीरें
आने जानें वालों की
कुछ गुलदस्ते
आइना होते हैं
तभी तो कुछ के भीतर
कुछ का कुछ-कुछ
दिख ही जाता है दर्द
मेरे सुधरते स्वास्थ्य का !

*उसे चाहिए वही शब्द*


सत्ता के गलियारों में
घूमते-गूंजते शब्द
थाम कर अर्थाने
वह बहुत भागा
फिर भी
अभागा ही रहा ! 

वह जितना भागा
सफर उतना ही बढ़ा
दिन बदले
अमावस से पूनम हो गई
मगर उसका चांद
फीका ही रहा
अगस्त से जनवरी आई
पोथा रच गई
सुख नहीं रचे
गिरगिट की तरह
शब्द भी
बदलने लगे रंग
अब देते नहीं वही अर्थ
जिनके लिए
उन्हे रचा गया था !

उसे चाहिए वही शब्द
जिन से भगतसिंह ने
इंकलाब लिखा
सुभाष ने लिखा
जय हिन्द !
उसकी तलाश जारी है
हाथ भी आए हैं कुछ शब्द
जिन्हे वह अर्था ही लेता
जो निकल गए छिटक कर
उस से बहुत दूर ;
कुछ शब्दकोश में
कुछ संविधान की 

जटिल परिभाषाओं मेँ
वह जान पाता
तब तक उनके
हेतुक परन्तुक आ खड़े हुए
जो थे किसी और के लिए !

वह सोचता है
मेरे अलावा
और कौन है
जिनके लिए
घड़े जाते हैं
अलग शब्द
जो सदैव रहते हैं
उन "और" की पहुंच में ।

* ठंड में याद *

आज फिर
पौष में धुंध छाई
आज फिर
उनकी याद आई !

वो मेरा मफलर-टोपी
स्वेटर-कोट पुराना
ऊनी पट्टू-लोई
अम्मां के हाथों भरी
सिरख-रजाई !

अदरख-कालीमिर्च
भाप छोड़ती चुस्कियां
वो चाय अम्मां वाली
संग में तवे उतरा
ताज़ा कड़क परांठा
खा कर फिर ले अंगड़ाई !

बाड़ छोड़ कर
जले अलाव
भोर-सांझ बैठ हो हथाई
घर-गुवाड़-देश-दुनिया
सब मसले मेटे हथाई !

कौन भागा
भागी किस के संग
कौन अभागा-निरभागा
कौन आया-जाया
खोले राज हथाई !

वोट पड़ेंगे
जम गई चौसर
नेता आया-नेता आया
औढ़ दुसाला
सरपंच बोला
बाजी पलटो अबके भाई
राम दुहाई-राम दुहाई !

बातों में घर

यूं तो घर में भी
कम नहीं थी बातें
मगर
बाहर ही गुजारते थे 
हम बातों में रातें !

दादाजी कहते थे
घर से बाहर
नहीं जानी चाहिए
घर की बातें
बाहर की बातें भी
नहीं आनी चाहिए
घर के भीतर
इसी भय में हम
अपने भीतर की बातें
छोड आया करते थे
घर के बाहर
फिर भी
कुछ दिन बाद
आ ही जाती थीं बातें
हमारी बन कर
घर के भीतर ।

घर चाहे
लौटते देरी से
मगर हर पल
जेहन में रहता था घर
बातों में घर का डर ।

घर से बाहर
बातों के अंत में
आ जाया करता था घर
या फिर
घर के आते-आते
हो जाया करती खत्म
सारी बातें !

बाजार का धर्म

ईद और दिवाली पर
बाजार ही छाया रहा
हर बार की तरह
इस बार भी
ऑफर पर ऑफर
छूट पर छूट
ढकी रही
भीतर छुपी लूट
गला काट महंगाई में भी
जम कर हुई बिक्री
डट कर हुई खरीद ।

बाज़ार में आ कर
धर्म भूल गए
ईद पर हिन्दुओं ने
दिवाली पर मुस्लिमों ने
भरपूर लाभ उठाया
ऑफर और छूट का ।

खरीददारी के वक्त
हिन्दू ने नहीं कहा
ईद पर दी जा रही छूट
मुस्लमानों के लिए है
हम नहीं लेंगे यह छूट
दिवाली पर
छूट लेता मुस्लिम
एक बार भी नहीं ठिठका ।

बाजार में आ कर
सब खो गए
साजिद और सुरेश
बाजार के हो गए
दोनों के धर्म
एक हो गए ;
ऑफर पर खरीदी
खरीदी पर छूट !

चेहरा ढूंढ़ो

कुछ भी होने 
या करने में
किसी का
क्यों ढूंढ़ते हो हाथ
चेहरा ढूंढ़ो
कोई भी चेहरा
किसी का भी
हाथ ले कर
कुछ भी कर सकता है
करता भी है ।

हाथ को
हाथ मिलने के
खतरे भी है
क्यों कि देखा है अक्सर
हाथ मिल जाते हैं
आपस में ।

*संकल्प*

संकल्पित हैं वे
अपने लक्ष्य हेतु
इस के लिए
वे जीम सकते हैं
किसी का भी अस्तित्व
पौरुष और सतित्व !

उनका लक्ष्य
जनसेवा है
जनसेवा में ही
सुरक्षित है
उनके लिए मेवा !

इस राह मे
जन भी अगर
हुए बाधा
तो उन्हें
पूरा मिलेगा न आधा
उनको रहना होगा
पांच साल मौन
उनके संकल्पों के बीच
आने वाले आखिर
वे होते हैं कौन !

*घटता नहीँ मगर*


जो घटा
वह चाहत नहीँ थी
जगत मेँ किसी की
चाहत तो हमेशा
अघटित ही रही !

मैँने चाहा
खिले फूल
बंजर मेँ
बरसे पानी
मरुधर मेँ
नदियां आ जाएं
बह कर खेतोँ मेँ
शब्दोँ को मिल जाएं
निहित अर्थ
हाथ को मिल जाए
हाथ किसी का
अपना सा
स्पर्श मेँ अनुभूतियां
तैरने लगें मछलियोँ सी
याद आने पर
आ जाए अगले ही पल
वांछित दिल का
कोई अपना सा
लगने वाला
हो ही जाए अपना !

घटता नहीँ मगर
घटता जाता है विश्वास !

घर

घर 
घर है
और
बाहर 
बाहर ही 
दोनोँ का
अपनी अपनी जगह रहना
बहुत जरूरी है 
घर से बाहर होने पर 
घर साथ रहे तो
घर कभी
बिखरता नहीँ
और यदि
घर लौटते वक्त
बाहर भी
घर के भीतर
आ जाए तो
कभी कभी
बिखर जाता है घर ।

* हम बोले रोटी *


उन्होँने कहा-
देखो !
हम ने देखा
वे खुश हुए ।

उन्होंने कहा-
सुनो !
वे बहुत खुश हुए !

उन्होंने कहा -
खड़े रहो !
हम खड़े रहे
वे बहुत ही खुश हुए ।

उन्होंने कहा-
बोलो !
हम ने कहा "रोटी" !
वे नाराज़ हुए !
बहुत नाराज हुए !!
बहुत ही नाराज़ हुए !!!

*चलो चलेँ*


समझदारोँ की भीड़ मेँ
नहीँ बचती संवेदना
बचती ही नहीं
प्यार भरी मुस्कुराहट !
चलो वहां चलें
जहां सभी बच्चे होँ
पालनोँ मेँ झूलते 
जो नाम पूछे बिना
मुस्कुराएं हमारी ओर !
उनके बीच
न ओसामा हो न ओबामा
न सैंसैक्स उठे न गिरे
न वोट डालने का झंझट
न भ्रष्टाचार न कपट !
वहां
सब के पास हो
सच मे करुण की निधि
कोई भी शीला
दीक्षित न हो
भ्रष्टाचार के खेल में !

*सन्नाटोँ मेँ स्त्री*


दिन भर 
आंखोँ से औझल रही
मासूम स्त्री को
रात के सन्नाटोँ मेँ
क्योँ करते हैँ याद
ऐ दम्भी पुरुष !

दिन मेँ 
खेलते हो
अपनी ताकत से खेल
सूरज को भी
धरती पर उतारने के
देखते हो सपने
ऐसे वक्त
याद भी नहीँ रखते
कौन हैँ पराये
कौन है अपने !

सांझ ढलते ही
क्यो सताती है
तुम्हेँ याद स्त्री की
भयावह रातोँ का
सामने करने को
साहस तुम्हारा
कहां चला जाता है ?
गौर से देखो
तुम्हारे भीतर भी है
एक स्त्री
जो डरती है तुम से
वही चाहती है साथ
सन्नाटोँ मेँ अपनी सखी का !

*इतिहास का सम्मोहन*


वक्त समेटता
खुद को
हो जाता इतिहास 
हम तलाशते उस मेँ
अपने खासम खास ।

करवट लेतीं आकांक्षाएं
कालपुरुष के पासंग
हम ढूंढ़ते उस में
आदिम सपनों की
हारी जीती जंग !

वक्त आज गुजरता
चाहता संग ले जाना
कालखंड के हस्ताक्षर
कौन चलेगा
कौन रुकेका
बारूदों बैठी
दुनियां दिखती दंग !

कालचक्र घूमता
रचता कालग्रास
आ तू-आ तू
तू आ-तू आ की
देता टेर
निज अभिलाषा ले
देखो निकले दंभी
इतिहास पत्रों के
सम्मोहन में बंधते
बदलें कितने रंग !

वो दूर गगन मेँ
उड़ती चिड़िया
उतरी कहां-किधर
कौन बताएगा
गुजरे वक्त
तुम बताना
कौन जीता
कौन हारा
सभ्यता के पाखंडों में
जीवन वाला जंग !

धूप छांव

नीचे धरती ऊपर आसमान तो है ।
मिलती धूप छांव सबको समान तो है ।।
इस पर भी है पहरा किसी किसी घर में ।
देख लो कुदरत का भी अपमान तो है ।।

प्रीत के गीत

चलो 
चल कर देखें
कौन कौन गा रहा है
प्रीत के गीत
या फिर हैं सभी
वासना में संलिप्त !

कितना अच्छा लगता है 
यह जान कर
अमराइयों में
खेत-खलिहानों में
बहिन-भाइयों में
डर में भी घर में
अभी तक
गाए जा रहे हैं
उन्मुक्त प्रीत के गीत !

संसद की मुंडेर
क्यों नहीं बैठती
मधुरकंठी कोयल
कांव-कांव
क्यों होती है भीतर
पहुंची नहीं शायद
रीत प्रीत की
अभी तक यहां ।

मांड मेँ आज भी
ढाल रही है प्रीत
मारु-कलाळी
दारू दाख्यां वाली
बड़ी हवेली
नूरी बेगम रुंधे गले

अपने घर 
क्यों रोती है
सुबक सुबक
आज भी बड़ी हवेली
प्रीत खरीदती है
बांटती नहीं शायद ।

देहरी के भीतर
पसरी है
चहुंदिश प्रीत असीम
जिसे रुखाले बैठी है अम्मा
विलायत जा बसे
बेटे-बहू-पोते
पर लुटाती रहती है
सांझ सवेरे
लौटता नहीं
एक भी कण प्रीत का
अम्मा के लिए
दूर दिसावर से
इसे अंजस बता
अम्मां टळकाती है आंसू
झरती है प्रीत आंगन मेँ !

[0] आओ सुन लें याद[0]

आओ 
उन्हें जरूर याद करें
जो हमें भूल गए हैं ।

उनकी हंसी को याद कर
हंसें मन भर
उनका उठना-बैठना 
याद कर दोहरा लें
दिन भर ।

उनके सच में से
घटा कर झूठ
पकड़ लें कबूतर
उनके भीतर से
फिर उडाएं
दिन भर ।

उनके वादों को भी
अब याद कर ही लें
सुनाई देगी चटख
आओ सुन हीं लें
टूटन का संगीत
बन ठन कर ।

उनका चेहरा
याद क्या करें
जाता ही नहीं दूर
आओ डालें
समय की चादर
कबीर हाथों
बुन कर ।

यादों का वादा
रखें आओ सम्भाल कर
डाल देंगे
ये लबादा
अपने तन उतार कर
उनके तन पर ।

तलपट

अपना सुख
यहां न लिखें तो
क्या नुक्सान
अपना दुख
यहां लिख दें तो
क्या फायदा ?

आपना सुख-दुख
कहीं छोड़ कर
यहां आएं तो
क्या नफा-नुक्सान ?

हम जाग रहे हैं
हम सोने जा रहे हैं
यह तलपट
यहां क्यों मिलाएं
मोर्निंग या नाइट
गुड है की गारंटी
किस किस से लें
और लें या न लें तो
क्या नफा-नुक्सान ?

मान क्यों नहीं लेते
कोई लिख रहा है तो
सलामत है
उसकी मोर्निंग और नाइट
गुड ही होगी
यदि उसका स्टेटस
अपडेट नहीं है तो
मान क्यों नहीं लेते
वह कर रहा होगा
अपना जरूरी काम
जो जरूरी है यहां आने से !

मां याद आई तो

आज 
बिस्तर गीला पाया तो
बचपन याद आया
भूख लगी और भोजन
नहीं पाया तो
बचपन याद आया 
गलती पर माफी न मिली तो
बचपन याद आया
गली में
फुग्गे वाला आया तो
बचपन याद आया
सरदी लगने पर
काढ़े की जगह
टेबलेट मिली तो
बचपन याद आया
बचपन याद आया तो
मां याद आई
मां याद आई तो
सब कुछ भूल गया !

तल्ख़ी रख कहन में


बंद कर
बर्फ का व्यपार
बहुत नमी है वातावरण में
जिसका पा कर पोषण
चौतरफा झाड़ियां 
बढ़ जो गई हैं आज
जला उनको
वरना ये लील जाएंगी
एक दिन
झुग्गियां तुम्हारी !

धरा की मौन स्वीकृति
देती है अवसर
बर्फ को जमने का
तुम मत दो
ज़हन में जो जम गई बर्फ
जम जाएगा तुम्हारा "मैं"
जो पहचान है तुम्हारी
अपनी पहचान के लिए तो उठ !

मुठ्ठियों में
हिम्मत रख
अंगारे रख ज़हन में
तल्खी रख कहन में
बर्फ पिघल जाएगी
जल उठेगा अलाव
समझ
इस सर्द मे
अलाव जलाना
कितना जरूरी है ।

उनके आने पर

उनके आने पर दहलीज गुनगुनाने लगी ।
उनके जाने पर दहलीज भरभराने लगी ।।
आंखो में उभर ना सकी तस्वीर कोई ।
वो सूरत जो ज़हन मे झिलमिलाने लगी ।।
हो जाएंगे वो नज़र से दूर जान कर ।
ज़िंदगी इस देह में कसमसाने लगी ।।
बेर खट्टे भी खाया किए बातों के लिए ।
आज यादें वो अकेले में रुलाने लगी ।
खा कर गर्म चीजें पीट लेते थे छाती ।
बातें बचपन की याद आ हसाने लगी ।

आओ लौट चलें

आओ लौट चलें
उस युग में
जहां नहीं था 
आज जैसा कुछ भी
बुरा भला
आदमी था
केवल आदमी 
आदमी के पास
आज जितने
नहीं थे विशेषण
जो लील रहे हैं
आज उसका होना ।

आओ लौटा लाएं
लुप्त होती
आदमी के लिए
उसकी मूल संज्ञा
जो दब गई है
असंख्य विशेषणों के नीचे !

. मन का मैल

तुम्हें हर वक्त
चिंता रहती है
दूसरों के मन के मैल की
अपने मन में कभी 
झांकते ही नहीं तुम
जहां मैल का
अथाह सागर 
हिलोरें मारता है
बह बह जाता है
दूसरों के मनों तक ।

दूसरों के मनों में
दिकता मैल
तुम्हारे मन के मैल का
अंशी ही तो है
अपना मन निर्मल कर
फिर दिखेंगे तुम्हें
चहूं ओर निर्मल मन !

कन्या बचाओ

क्या कोई हुक्मरान
आगे आ कर बताएगा
क्यूं कोई
इस दिन के लिए
कन्या बचाएगा ?

हालात यही रहे तो 
कल यही समाज
कन्या बचाओ की जगह
कन्या बताओ का
नारा लगाता दिखेगा
तब तक यकीनन
कन्या प्रजाति
भारत भूर से
लुप्त हो जाएगी
!