शुक्रवार, जून 21, 2013

*सन्नाटोँ मेँ स्त्री*


दिन भर 
आंखोँ से औझल रही
मासूम स्त्री को
रात के सन्नाटोँ मेँ
क्योँ करते हैँ याद
ऐ दम्भी पुरुष !

दिन मेँ 
खेलते हो
अपनी ताकत से खेल
सूरज को भी
धरती पर उतारने के
देखते हो सपने
ऐसे वक्त
याद भी नहीँ रखते
कौन हैँ पराये
कौन है अपने !

सांझ ढलते ही
क्यो सताती है
तुम्हेँ याद स्त्री की
भयावह रातोँ का
सामने करने को
साहस तुम्हारा
कहां चला जाता है ?
गौर से देखो
तुम्हारे भीतर भी है
एक स्त्री
जो डरती है तुम से
वही चाहती है साथ
सन्नाटोँ मेँ अपनी सखी का !

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