रविवार, जून 27, 2010

ओम पुरोहित 'कागद' की आठ हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित 'कागद' की आठ हिन्दी कविताएं
थिरकती है तृष्णा (कविता-संग्रह-२००५) से

आठ अकाल चित्र

1. झूम्पे में

अब नहीं बचे
हाड़ों पर चर्बी और चाम
हाडारोड़ी से लौटा है
हड़खोरा कुत्ता
जीभ लपलपाता
ढूंढ़ने गांव के किसी झूंपे में
कहीं अटकी
कोई बूढ़ी सांस ।

2. उस चित्र को

गांव में आया था
उड़ कर कहीं से
अखबार का एक पन्ना
बूढ़ी काकी ने
जिसे चाहा था बांचना
तब तक सब पढ़ लिया था
भाखड़ा बांध के
उस चित्र को
टळका कर आंसू
तहा कर रख लिया था
ऊंडी गोझ में ।

3. क्या होती है बिरखा

भूल गई डेडर की जात
ऊंचे -ऊंचे  स्वर में
गाना टर्राना ।

भूल गई चिड़िया
गा-गा
धूल में नहाना ।

मोर भी नहीं तानता
अब छत्तर
पारसाल ही तो जन्मा था
जब उतरा था अकाल
चारों कूंट
बरसी थी
धोबां-धोबां धूल ।
वह बेचारा
यह भी नहीं जानता
क्या होती है बिरखा
क्या होता है उसका बरसना ।

4. पूछती है बेकळू

इधर-उधर उड़ती
सोनचिड़ी से पूछती है
खेत की बेकळू
कब आएगा गांव से
मरियल सी सांड लिए
हल जोतने जोगलिया ?

कब आएगी
उसकी बीनणी
भाता ले कर
गोटा किनारी वाले
तार-तार
घाघरा कांचळी पहने ?

कब खिंडेगी
इधर-उधर
मेरी तपती देह पर
प्याज के छिलकों संग
छाछ राब की बूंदें ?

5. नहीं जन्मेंगे

सूख-सूख गए
सांप-सलीटा
बिच्छू-कांटा
सब धरती की कोख में;
जो निकले थे कभी
बूंद भर बरसात में ।

खोहों में
भटक-भटक मर लिए
जान लिए हाथ में ।

नहीं जन्मेंगे
अब कभी थार में
रहा जन्मना
अगर उनके हाथ में ।

6. झूंपे ही नहीं

यह काले-काले झूंपे
धोरी के आलस
या सूगलेपन का
परिणाम नहीं है
इनके भीतर
अकाल
महाकाल
त्रिकाल सरीखे सांप
बसते रहे हैं
और
भीतर बाहर से इन्हें
सदी दर सदी
डसते रहे हैं
इस लिए अब
यह झूंपे ही नहीं
साक्षात शिव भी हैं ।

7. बिफरती रेत में

इस बार होगा जमाना
धान से भरेंगे कोठार
बाबा करेंगे
पीले हाथ मेरे
यह सपने देखे थे
साल-दर-साल
पर हर साल
सब जीमता गया अकाल ।

इस बार
जब फिर सावन आया
आकाश में कुछ तैर आया
मैंने सपने
और बाबा ने बीज बोया
मगर इस बार फिर
वही हुआ
बाबा के बीज और मेरे सपने
जल गए ।

अब
न बाबा के पास बीज हैं
न मेरे पास सपने
न आस/
न इच्छा ।

8. यूं बरसती है बिरखा

खूब रोता है धनिया
जब पूछती है
सात साल की लडली
बाबा, कैसी होती है बिरखा !

टळ-टळ बहती
आंखों की ओर
इशारा भर करता है
और कहता है
बेटी !
यूं पड़ता है पानी
यूं बरसती है बिरखा !

सोमवार, जून 21, 2010

पांच पंचलड़ी



(1)
मत कर झूठी प्रीत सखा।
चला प्रीत की रीत सखा॥
प्रीत क्योँ पाले रीत भर।
हो थोड़ा भयभीत सखा॥
रीत की प्रीत पाली तो।
क्योँ ढूंढ़े मनमीत सखा॥
मन का मन से हो नाता।
सुन मन का संगीत सखा॥
सुर साधो दिल के अपने।
गाओ मिल कर गीत सखा॥


(2)
 देख देस रा हाल डावड़ा ।
हाकम खावै माल डावड़ा॥
भूखा करै उपवास अठै।
धाया बजावै गा'ल डावड़ा॥
चाट लिया हक सगळा थारा।
अब तो बां नै पाल डावड़ा॥
रोटी रो रोळो रोज अठै।
कूकर काटै साल डावड़ा॥
रजधानी मेँ गोधा घुसग्या।
काढण चालां चाल डावड़ा॥


(3)
लाजां मरग्या देख आज बापजी।
हाथां थरप्यो लोकराज बापजी॥
नेता रै घर मेँ नेता जामै।
आपस मेँ बांटै ताज बापजी॥
कोठ्यां मेँ पीजा गटकै गंडका।
गरीब रै कोनीँ अनाज बापजी॥
करजै सूं चालै रोज रसोई।
उतरै कोनीँ ब्याज बापजी॥
नेता तो बरतै बत्तीसूं भोजन।
अठै नीँ बापरै प्याज बापजी॥


(4)
छाती रो भार मिटसी देखी।
धरती रो भार घटसी देखी॥
हाल अंधारो है चौगड़दै।
आभै री धूड़ हटसी देखी॥
हाकम हाल तांईँ मिज़ळा है।
जनता रा जाप रटसी देखी॥
पाव कमावै मण खरचै।
जनता हिसाब करसी देखी॥
अमर कोनीँ बै कुरसी आळा।
टैम आयां स्सै मरसी देखी॥


(5)
लोग कमावै थारो क्यूं।
रोटी मांग्यां मारो क्यूं॥
है मुंडै मीठी बातां।
अंतस थारो खारो क्यूं॥
धण पकावै रोटी देख।
थारो जीमण चारो क्यूं॥
हारयां पाछा आओ थे।
जन सेवा रो लारो क्यूं॥
हांती पांती बांटो थे।
खोस्यां बैठ्या सारो क्यूं॥

रविवार, जून 20, 2010

ओम पुरोहित कागद की राजस्थानी व्यंग्य कविताएं

ओम पुरोहित ’कागद’ की राजस्थानी व्यंग्य कविताएं

चाळीस कुचरणीं

नेता चाळिसो

१.
सो गावां री
बाजरी खाई
साठ गांवां रो लूण
नेता जी घूमै
ज्यूं कूवै रो भूण !
२.
घर में आठ रा
बा’रनै साठ रा
नेता जी बणग्या बाप
राम जाणै बां नै
कद लागसी पाप !
३.
पोतडिया
थाणै में सूकै
नेताजी
मंचां माथै भासण देवै
जाणै दूध सारू
टाबरियो कूकै !
४.
नेताजी देवै
भासण साफ़
ढीली पड्गी
भलांई राफ़ !
५.
नेताजी रो
कुण सग्गो
जको बणै
बो खावै
सै सूं पै’ली
तगडो दग्गो !
६.
नेताजी रा
च्यार भाई
स्टोरिया
ब्लैकिया
स्मगलर
अर सिपाई !
७.
नेताजी करावै
सगळां सूं चाकरी
दिल्ली जाय’र
चिन्ता कोनी करै
कीं री ई डाक री !
८.
नेताजी खस्सै
भासण नैं
जनता तरसै
रासण नैं !
९.
नेताजी री
जनता में
नीं गळै दाळ
संसद में जाय"र
काढै
भूंडी गाळ !
१०.
नेताजी
कीं नै ई
नीं जाण देवै
बोटां सारु
भैंस नैं ई
ब्याण देवै !
११.
नेताजी
कीं री पूरी
मांग करै
बै तो खुद आपरी
भोत दोरी
उंची टांग करै !
१२.
नेताजी में
सिफ़तां मोकळी
ताबै आयां
बगतै नैं ई
दे ज्यावै ढोकळी !
१३.
नेताजी राखै
एक चेलो
जको
भरतो रै’वै
नोटां सूं थैलो !
१४.
नेताजी
हारतां ई
बण जावै गंद
पांच साल ताईं
करावै बजार बंद !
१५.
नेताजी रो
ओ एलान
नोटां री माळा
म्हारै गळै
दूर राखो भान !
१६.
नेताजी जद
हांसै कूडी हांसी
समझल्यो
चढसी कोई फ़ांसी !
१७.
नेताजी नैं
चौखा लागै
गांव में सरपंच
अर
सै’र में मंच !
१८.
नेताजी नैं
भावै
बोटर भोळो
अर
संसद में रोळो !
१९.
नेताजी
घणा भोळा
बोलै ई कोनीं
भलांई
कित्ता’ई देवो
नोटां रा झोळा !
२०.
नेताजी
आलाकमान सूं
टिगट मांगै
जे गाडी में
टी.टी. टिगट मांगै
तो बै बीं नैं
चालती गाडी में
फ़ांसी टांगै !
२१.
नेताजी डरै
खाली हारण सूं
बाकी तो बै
कद डरै
सागी मा नै भी
मारण सूं !
२२.
नेताजी रा
दाळ-भात
दळ बदळ
अर
पीठघात !
२३.
नेताजी
कर सकै
बलात्कार
जे बां नैं नीं हुवै
बोटां री दरकार !
२४.
नेताजी बोल्या
परनै हू ए गावडी
कीं म्हांनै ई
चरण दे डावडी !
२५.
नेताजी रै
छप्पन रोग
जीत्यां ई
हुवै निरोग
के जाणै बापडा
भोळा लोग !
२६.
नेताजी
कद बणै मोडा
जे बण जावै
तो फ़ोड न्हाखै
देवतावां रा गोडा !
२७.
नेताजी बोल्या
जनता री तकलीफ़ां
दूर करण रो
म्हैं ले लियो ठेको
अब तो म्हांनै
बोटडा टेको !
२८.
नेताजी बोल्या
जे म्हे नीं हुआं
कुण थूकै
कुण चाटै
अर म्हारै बिनां
एक ई पुळ रै
उदघाटण रो फ़ीतौ
बार-बार कुण काटै !
२९.
नेताजी रै
एक ई कळेस
पार्टी तौ बदळ सकै
कीयां बदळै भेस !
३०.
नेताजी
अर अडवै में
इत्तौ ई फ़रक
अडवौ कीं खावै कोनीं
अर नेताजी खांवता
सरमावै कोनीं !
३१.
नेताजी रै
सो कीं पचै
अर
बांरै खायां पछै
कीं नीं बचै !
३२.
नेताजी
देश नैं खा सकै
पण
धोखौ नीं खा सकै !
३३.
नेताजी
सो बार पार्टी बदळै
पण बां रो मन
एक बार भी
नीं बदळै !
३४.
नेताजी रै
सासण में
डीपू आळै
रासण में
खोट ई खोट
सतगुरु तेरी ओट !
३५.
नेताजी
एक दम बेकार
पण चढण नै
चाईजै कार !
३६.
नेताजी रो
दाव
राज रो
न्याव !
३७.
नेताजी रा
कान काच्चा
कद रै’वै
याद वाच्चा !
३८.
नेताजी
रोटी खोसै
पण मांगै बोट
डाकू नै पौखै
धरमी नैं रोसै !
३९.
नेताजी रै
सात दूणी आठ
अर जनता रै
बीस चौका आठ !
४०.
नेताजी
पाळै धरम
पण
धरम माथै चालता
राखै सरम !

बुधवार, जून 16, 2010

ओम पुरोहित कागद की सात हिन्दी कविताएं

सात अकाल चित्र


1.मिले तो सही

धोरों की पाळ पर
सळफलाती घूमती है
जहरी बांडी
मिलता नहीं कहीं भी
मिनख का जाया ।

भले ही
हो सपेरा
मिले तो सही
कहीं
माणस की गंध ।

2. यही बची है

सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुंड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गंदला भर पानी ।

रेत के समन्दर में
आंख भर पर जिन्दा है भंवरिया ।
यही बची है
जो बरसाती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी ।

3. जानता है नत्थू काका

भेड़ की खाल से
बहुत मारके का
बनता है चंग
जानता है नत्थू काका
पर ऐसे में
बजेगा भी कैसे
जब गुवाड़ में
मरी पड़ी हों
रेवड़ की सारी की सारी भेड़ें
चूल्हे में महीने भर से
नही जला हो बास्ती
और
घर में मौत तानती हो फाका ।

4. मौत से पहले

सूख-सूख मर गईं
रेत में नहा-नहा चिड़िया
नहीं उमड़ा उस पर
बिरखा को रत्ती भर नेह ।
ताल-तलाई
कुंड-बावड़ी
सपनों में भी
रीते दिखते हैं
भरे,
कब सोचा था उस ने
मौत से पहले
एक साध थी;
नहाती बिरखा में
दो पल सुख भोगती
जो ढकणी भर बरसा होता मेह ।

5.ढूंढ़ता है



खेत में पाड़ डाल-डाल
थार को
उथल-पुथल कर
ढूंढ़ता है सी’ल;
आंगली भर ही सही
मिले अगर सी’ल
तो रोप दे
सिणिया भर हरा
और लौटा लाए
शहर के ट्रस्ट में
चरणे गई धर्मादे का चारा
थाकल डील गायें ।

6. कहीं तो बचे जीवन


आंख उठाये
देखता है देवला
कभी आसमान को
और टटोलता है कभी
हरियाली के नाम पर बची
सीवण की आखिरी निशानी ।

कहीं तो बचे जीवन
जो कभी हरा हो
जब बरसे गरज कर
थार में थिरकता पानी ।

7. तपस्वी रूंख

सिकी हुई रेत में
खड़ा है
हरियल सपने लेता
खेजड़े का तपस्वी रूंख ।

बरसे अगर एक बूंद
तो निकाल दे
ढेर होते ढोरों के लिए
दो-चार पानड़े
और टोर दे थार में
जीवन के दो-चार पांवड़े ।




थिरकती है तृष्णा ( कविता -संग्रह ) 2005 से

थिरकती है तृष्णा ( kavitaa

1। मिले तो सही

धोरों की पाल पर
सलफलाती घूमती है
हरी बांडी
मिलता नहीं कहीं भी
मिनख का जाया

भले ही
हो सपेरा
मिले तो सही
कहीं
माणस की गंध


2. यही बची है

सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुंड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गंदला भर पानी

रेत के समन्दर में
आंख भर पर जिन्दा है भंवरिया
यही बची है
जो कभी बरसती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी


3. जानता है नत्थू काका

भेड़ की खाल से
बहुत मारके का
बनता है चंग
जानता है नत्थू काका
पर ऐसे में
बजेगा भी कैसे
जब गुवाड़ में
मरी पड़ी हों
रेवड़ की सारी की सारी भेड़ें
चूल्हे में महीने भर से
नही जला हो बास्ती
और
घर में मौत तानती हो फाका

4. मौत से पहले

सूख-सूख मर गयी
रेत में नहा-नहा चिड़िया
नहीं उमड़ा उस पर
बिरखा को रत्ती भर नेह
ताल-तलाई
कुंड-बावड़ी
सपनों में भी
रीते दिखते हैं
भरे,
कब सोचा था उस ने
मौत से पहले
एक साध थी;
नहाती बिरखा में
दो पल सुख भोगती
जो ढकणी भर बरसा होता मेह

5. ढूढ़ता है

खेत में पाड़ डाल-डाल
थार को
उथल-पुथल कर
ढूंढ़ता है सी;
आंगल भर ही सही
मिले अगर सी
तो रोप दे
सिणिया भर हरा
और लौटा लाए
शहर के ट्रस्ट में
चरणे गई धर्मादे का चारा
थाकल डील गायें

6. कही तो बचे जीवन

आंख उठाये
देखता है देवला
कभी आसमान को
और टटोलता है कभी
हरियाली के नाम पर बची
सीवण की आख़िरी निशानी

कहीं तो बचे जीवन
जो कभी हरा हो
जब बरसे गरज कर
थार में थिरकता पानी

7. तपस्वी रूंख

सिकी हुई रेत में
खड़ा है
हरियल सपने लेता
खेजड़े का तपस्वी रूंख

बरसे अगर एक बूंद

तो निकाल दे
ढेर होते ढोरों के लिए
दो-चार पानड़े
और टोर दे थार में
जीवन के दो-चार पांवड़े