मंगलवार, सितंबर 25, 2012

[] तलाश []


उनकी रसोई मेँ
पकते रहे
वे कबूतर
जो कभी हम नेँ
शांति और मित्रता की
तलाश मेँ
उड़ाए थे ।

हम


आज भी
शांति और मित्रता की
तलाश मेँ हैँ

वे फक़त
कबूतरोँ की फिराक मेँ !

<> करते हुए याचना <>


समूचे देश में
त्यौहार है आज
सजे हैं वंदनवार
बंट रहे हैं उपहार
हो रही हैं उपासनाएं
और अधिक की याचनाएं !

पाषाणी पेट वाले
देवता पा रहे हैं
धूप-दीप-हवियां
तेत्तीस तरकारी
बत्तीस भोजन
छप्पन भोग
अखंड-निःरोग !

आज निकले हैं

लाव-लाव करते
कुलबुलाते पेट
बचा-खुचा-बासी
पेट भर पाने
लौटेंगे शाम तक
न जाने कितनी खा कर
झिड़कियांसनी रोटियां !

आज रात

झौंपड़पट्टी में
मा-बाप निहाल
भर भर पेट
सो जाएंगे लाल
कल फिर ऐसा ही हो
करते हुए याचना
अपने देवता से
दुबक जाएंगे
पॉलिथिन की शैया पर !


दो गज़ल

एक-
यार था बेपनाह मुहब्बत कर गया ।
गया तो दर्दे दिल वसीयत कर गया ।।
अलकतरा की तामीर था यह शहर ।
जरा सी धूप उतरी तो पसर गया ।।
पहाड़ों से जो पत्थर उतारे गए ।
नीचे उन्हीँ मेँ लामकां उतर गया ।।
रात भर तलाश जारी रही उसकी ।
सुबह जो हुई तो वो चांद मर गया ।।
पत्थर से बहुत ठोस था दिल उसका ।
ना जाने कोई कैसे उतर गया ।।

================================= 
दो-

अपनी हर बात पर तमाशा किए बैठै हैं ।
बडी़ ही सही हम तोआशा लिए बैठै हैं ॥

अपने दिल-ए-कांच की हिफ़ाजत करूं कैसे ।
वो शहर  भर के पत्थर ज़ब्त किए बैठै हैं ॥

उनके गम का हमसाकी बनूं भी तो कैसे ।
वो तो दुनिया के तमाम अश्क पिये बैठै हैं ॥

क्या जाने उनके भी दिल में है इधर सा ।
वो जो अर्से से अपने लब सिये   बैठै हैं ॥

कहां तक थामेंगे हाथ    सफ़र-ए-ज़िन्दगी में ।
वो जो उम्र का हर लम्हा आज जिए बैठै हैं ॥

वो क्योंकर आने लगे अब मेरे अलाव पर ।
जो अपने  दामन में आफ़ताब लिए बैठै हैं ।

॥+॥ बिफरते थार में ॥+॥



पानी नहीं था
प्यास भर
सम्भावानाएं थी
असीम आस लिए
थिरकते जीवन की
बिफरते थार में
जो न जाने कब

खींच लाई
पुरखों को हमारे
अपने मरुथल द्वारे !

सांय-सांय करता

थरथर्राता थार
बाहें पसार
बुलाता रहा
सुलाता रहा
मीठी थपकियां दे ।

मैं भी बुनता रहा

सीने लग सपने
देखता रहा
दौड़ते मृग
तैरती तृष्णा
नहीं पकड़ पाए
हम तीनों
पानी जैसा पानी
फिर भी जी लिया
जीवन जैसा जीवन !

000 डबडबाई आंखें 000



आंख का काम
देखना था
देखते-देखते
क्यों भटक गई
आज अचानक
डबडबा गई क्यों !

दृश्यमान जगत
जगत की क्रियाएं
जरूरी तो नहीं-हों
आंखों की भावन
पवित्र-पावन
फिर क्यों हो जाती हैं
विचलित आंखें
झकझोर तार हृदय के
जोड़ कर खुद से
बह-बह जाती हैं ।

होना तो

होता ही है होना
होना तो नहीं होता
सब कुछ करना
होना करना जोड़ कर
क्यों टलकाती है आंखें
तरल गरल हृदय का
अपना दे कर सान्निध्य ।

मैं अकेला

बैठा मौन
भीतर घटता
घट-घट अघट
उल्टा-सीधा
उलट पलट
बिम्ब जबरी
उन सब का
बाहर बनाती क्यों
ये आंखें हम को
इतना भी
हर पल बरसाती क्यों !

जाना है मुझको

छोड़ जगत
आंख कहां फिर
ये रहने वाली है
इस बात पर भी देखो
आंख भरने वाली है ।


बस पढ़ लो


जिसने भी प्यार बोया है ।
वही जार जार रोया है ।।
प्रीत लाया और बांट दी ।
बस यूं रिश्तों को ढोया है ।।
बीज नफरत के थे हाथ में ।
उस ने भला क्या खोया है ।।
वो खूब उड़ा आकाश में ।

पंछी कब वहां सोया है ।।
आ कर मुझे भी देख यार ।
ये ज़िन्दा है या मोया है ।।

*कोई इंकलाब बोल गया *


लिखनी थी मुझे
आज एक कविता
जो छटपटा रही थी
अंतस-अवचेतन मेरे
अंतहीन विषय-प्रसंग
बिम्ब-प्रतीक लिए ।

अनुभव ने कहा
आ मुझे लिख
जगत के काम आउंगा
तुम्हारी यश पताका
जगत मेँ फहराउंगा !

प्रीत बोली

मुझे कथ
तेरे साथ चल
तुम्हारा एकांत धोउंगी
तू हंसेगा तो हंसूंगी
तू रोएगा तो रोउंगी !

दृष्टि कौंधी

चल सौंदर्य लिख
जो पसरा है
समूची धरा पर
अनेकानेक रंग-रूपों में
जो रह जाएगा धरा
जब धारेगा जरा ।

आंतों की राग बोली

मुझे सुन
जठर की आग बोली
मुझे गुण
पेट की भूख बोली
मुझे लिख
हम शांत होंगे
तभी चलेगा जगत
नहीं तो जलेगा जगत !

मैंने पेट की सुन

आंतो की भूख
जठर की आग लिखदी
कोई इंकलाब बोल गया
कौसों दूर नुगरों का


काग और मैं



 











मैं
जब तक
नहीं आया घर
तब तक
न जाने कितने
काग उड़ा दिए होंगे
मेरे परिजन ने

घर की मुंडेर से !

काग को

मैंने नहीं
उसी के पेट की
भूख ने भेजा था
जैसे भेजा है मुझे
मेरे घर से दूर

प्रीत की प्रीत


हवा के आंचल
बैठ अकेला
उड़ चला बीज
चाहे दिशा रही
गंतव्यहीन हर पल ।

पाया अचानक


स्नेहिल अपनापन
छोड़ हवा का आंचल
उतर गया जमीं पर
पा कर नमी अंकुराया
हुई पल्लवित प्रीत
नेह मुस्काया
हो पुष्पित महका
चहकी प्रकृति
छिड़ गई स्वर लहरी
भंवरों की गुंजन में
जिसे ले उड़ी बयार
मधुरिम महक फैलाने !

प्रकृति के आंचल

पगी प्रीत
प्रकट हो फड़फड़ाए
बीज के बीज
उड़ चले
हाथ बयार का थाम
पसरने लगी
प्रीत की प्रीत !

सपनों की मिट्टी


खुली आंख से
हम ने देखे
सालों सपने
अब तो
थक गईं आंखें
राह भटक कर
औरों की आंखों

सो गए सारे
सपने अपने !

कुछ सपने

थे जो निज अपने
अपनी आंखो में
दम तोड़ गए
सच कहूं तो
सपने खुद
अपना ही
दामन छोड़ गए ।

अब तो

इन आंखों में
सपनों की लाशों का
लगा है अंबार
जिन्हें दफनाता हूं
करता हूं दाह-दाग
दिन रात
मौए सपनों की मिट्टी
लगे ठिकाने
तब देखूंगा
नए सपनें
जो खड़े हैं
पलकों के बाहर
आने से डरते
मेरी भस्मीकुंड आंखो में !

हैप्पी बर्थ डे कान्हां

.

जब हुई धर्म की हानि
तब जन्में थे कान्हां तुम
कर धर्म की पुनर्स्थापना
हुए रवाना कान्हां तुम
अब फिर हालात वही हैं
आज ना धर्म बचा है
ना कर्म-शर्म शेष है

मानव तो बस सचमुच
जीवन का अवशेष है ।

देखो तो कैसे

मानव को मानव
लूट-मार रहा है
आओ तो कान्हां
अब आ जाओ
कण-कण तुम्हें
पुकार रहा है ।

इस बार बच कर आना

पग-पग पर
गप्प-गपोड़ी राधाओं की
भरमार मिलेंगी
कंस-शकुनि
जरासंध-दुर्योधन से
कहीं चतुर चालाक
सत्ता लोभी जनविरोधी
बाहूबली तैयार मिलेंगे !

इस बार कान्हां

बांसुरी मत लाना
तुम्हें नहीं मिलेगा वक्त
कि बजा सको
चैन की बांसुरी
सुनने वाली ना होगी
गोप-गोपियां
वो सेकेंगे रोटियां
तुम्हारी प्रिय गाय
गऊशाला या सड़क पर
मिलेगी
दूध-मक्खण डेयरी में है
तुम चख भी ना पाओगे
ऐसे में बांसुरी कैसे बजाओगे ?

धनुष-तीर-सुदर्शन

मत लाना इस बार
वरना ओलम्पिक में
भेज दिए जाओगे
लाओ तो कोई विचित्र
हथियार ही लाना
जो दिखे नहीं
पर चल जाए
वरना आर्मस एक्ट में
धर लिए जाओगे
फिर तो कान्हा कोर्ट में
लड़-लड़ सड़ जाओगे !

तुम्हारा पिछला जन्म

आज खाने-पीने के लिए
सेलिब्रिटे कर रहे हैं
देखो कितनी धूम मची है
तुम झांकियों में सजे हो
ताका-झांकियों में देखो
कितने युवा लगे हैं
खैर ! छोड़ो !
आओ जैसे आ जाना
मैं जादा बोला तो
तुम्हे बुलाने के जुर्म में
धर लिया जाऊंगा
उम्र भर छूट न पाऊंगा
सो फिलहाल तो
हैप्पी बर्थ डे कान्हा !

क्या कमी है शासन में


रोटी छप गई विज्ञापन में ।
कहो क्या कमी है शासन में ।।
भूखे हो तो चुप ही रहना ।
है लाभ बड़ा अनुशासन में ।।
मतदाता हो तुम देते रहना ।
दम अपना देखो भाषण में ।।
भाग्य अपना तो सत्ता वाला ।

तुम जाये अपने दासन में ।।
काम के बदले मिले अनाज ।
मत ताक राज के राशन में ।।

मजे रात के


मजे रात के
छूट रहे हैं
सोने वाले
सो गए
चांदी वाले
कूट रहे हैं
लोहे वाले

खो गए
मिट्टी वाले
फूट रहे हैं !

जलाना ही होगा अलाव


बर्फ जो जम गई है
तुम्हारे चारों ओर
उसे सिर से उतार
कदमों तले रोंद
दफना कर भूलना
नहीं है बचाव हरगिज !

बर्फ को स्मृतियों में रख
मुक्कमल नेस्तनाबूद की
रचनी ही होगी
कारगर व्यूह रचना
पग-पग सम्भल कर ।

मन-मस्तिष्क को

जमा-जमा कर
कुंद करने वाली बर्फ
कदमों तले दब
रोक देगी तुम्हारी गति
अपनी दुर्गति से
बचाव के लिए
अपने इर्द-गिर्द
जलाना ही होगा अलाव!

कल के लिए

अभी से सम्भलना होगा
रखनी भी होगी
बचा कर चिनगियां
ताकि वक्त जरूरत
जला सको अलाव !


आज़ादी का अर्थ


दादा जी कहते थे
अपने बच्चों को
जादा आज़ादी मत दो
बच्चे बिगड़ जाएंगे
फिर देखना
यही बच्चे एक दिन
आपको खूब रुलाएंगे !


दादा जी चले गए
बच्चों के बच्चे
आजाद हो गए
मचा दिया
घर में कोहराम
फिर घर को
नहीं बचा सके राम !

आज

यही हाल देश का है
आजादी पच नहीं रही
शर्म बच नहीं रही
आजादी के अधाए लोग
उद्दंड हो गए
अपने ही सपने
खंड-खंड हो गए !

आजादी के बाद

स्वशासन नहीं
अनुशासन चाहिए था
वह नहीं आया
इसी लिए
आज़ादी का अर्थ
समझ नहीं आया !

मेरा देश महान है

टेडियम के पीछे
झोंपड़ पट्टी में
15 अगस्त को
नत्थू गरजा
अपुन के
ना रोटी है
ना मकान है
ना कच्छा है
ना बनियान है
फिर भी
मेरा देश महान है!

==================
 आदमखोर तनहाई मे
कोई तो आओ करीब
दोस्त की बेवफाइ में
हम हैं देखो गरीब !

==================== 

मौत या मीत
कोई तो आ कर
सुला दे गहरी नींद
बहुत थक गया हूं !

===============================
 तुम्हारी अनुपस्थिति में
बहुत बढ़ रही है रात
मैं मगर इस रात में
पल-पल घट रहा हूं !

============================

आने वालों की कमी


 












मोत सिरहाने आ कर भी टलती रही ।
ज़िंदगी चिता की मानिंद जलती रही ।।
ना नींद आई ना मोत आई ना तुम ।
यूं आने वालों की कमी खलती रही ।।
झपकियों में उभरा आ चेहरा उसका ।
यादें यतीम औलाद सी पलती रहीं ।।
हम यादों में तड़पे तो वो कह गए ।

यह तो तमाम आपकी ही गलती रही ।।
पंचांगों में बदल गईं तारीखें सब ।
ज़िंदगी थाम हाथ अपने मलती रही ।।


( श्राद्धपक्ष में उसकी स्मृति को समर्पित )

आजकल आप


चेहरे पर आपके
आज कल
बहुत रंग
आने लगे हैं
जिन्हें देख कर
अब तो
गिरगिट भी

शर्माने लगे हैं !

रुत आने पर

बोला करते थे
कभी सड़कों पर
लोगों के बीच आप
आजकल तो आप
बेवजह टीवी पर
टर्राने लगे हैं !

पीने को नहीं

झौंपड़ पट्टी में पानी
आप तो जनाब
नहाए हुए भी
नहाने लगे हैं !

खाने पर

पहरा आपका
रहा उम्र भर
मगर
वो जो मर गई
भूख में बस्ती
आप हाथ
उस में भी
विदेशी बताने लगे हैं !

रात गुजरती है

लाखों की
खुले आसमान तले
बेखौफ-बेफिक्र
आप तो
बन्द कमरों में भी
घबराने लगे हैं !

वो लाया था

लाठी-लाठी लंगोटी में
छीन कर आज़ादी
आप तो उसे
पांच कपड़ों में भी
गंवाने लगे हैं !

वो बांट गए प्रेम

पढ़ कर ढाई आखर
आप पढ़-पढ़
हजारों ग्रंथ
ज़हर नफ़रत का
फैलान लगे हैं !

आम और खास


आम आदमी
अपने लिए नहीं
करता है काम
खास के लिए
चाहे तो
दिन भर
कर ले

हाड़ तोड़ काम
खा ले धक्के
मगर
खा नहीं सकता
पाव भर आम !
*
खास आदमी
नहीं करता
कोई भी काम
सोंप कर
आम आदमी को
काम दर काम
बस कमाता है
दाम से दाम !
*
आम के लिए
आम नहीं है
और खास
आम के लिए नहीं !

बुद्धिमान लोग


शब्दों पर
हो कर सवार
कहां से कहां
पहुंच गए
बुद्धिमान लोग !


पहुंचे हुए
यह शातिर लोग
अब
खुद मौन रह
लड़ा रहे हैं
परस्पर शब्दों को
उनकी व्यंजनाओं से
संवेदनाओं से !

उन्हें चिन्ता नहीं

शब्दों के घिसने की
उनके अर्थ खोने की
क्यों कि वे जान गए हैं
शब्द ब्रह्म है
अनश्वर है शब्द
इस लिए ब्रह्मास्त्र है
शब्द चल जाएगा तो
हम भी चल जाएंगे !

चले हुए शब्द

लौटते नहीं कभी
बींधते जाते हैं
सदियों को
सदियों तक
बुद्धि का साम्राज्य
फैलता जाता है
पराजित शब्दधारकों
और
शब्दहीन लोगों पर
अनंतकाल तक !

हक मांगना भी रोना है


आंख के आंसू
दिखते तो हैं
होता कहां है
विश्वास मगर उनका !

दिल के आंसू

दिखते नहीं

इस लिए
कोई कितना ही रोए
होता नहीं विश्वास !
*
कुछ लोग
रो कर कहते हैं
कुछ
कह कर रोते हैं
हम
सब कुछ
खुली आंख देख
मौन रह कर
दिल से रोते हैं !
*
आज कल
हक मांगना भी
रोना है
इस लिए
आजकल नत्थू
रोता हुआ दिखता है !

नेताजी की चिंता


नेताजी को आजकल
ये चिंता सताती है ;
हम जब
जनता के बारे में
कुछ नहीं सोचते
तो यह जनता
हमारे बारे में

क्यों सोचती है !

जनता क्या खाती है

क्या पहनती है
कहां सोती है
हम ने उस से
कभी नहीं पूछा
तो फिर यह जनता
हमारे कुछ खाते ही
सड़कों पर क्यों
उतर जाती है ?

बचपन के दिन


कितना प्यारे थे
बचपन के दिन
आज भी
याद आती हैं
उन दिनों की ।

उन दिनों


अपने ही हाथों
जो टूट जाता
खिलोना अपना
खूब रोते थे
इस पर मगर
कितना मिलता था
माँ का प्यार
पिता का दुलार ।

तब

खरीदते नहीं थे
कोई भी चीज
किसी बाज़ार से
हर मनचाही
पैसों से नहीं
हठ से मिलती थी !

मुख्य अतिथि जरूरी है



आजकल
हर भले काम के
उद्घाटन व समापन पर
मुख्य अतिथि का होना
कितना जरूरी हो गया
इस सिलसिले में
मुख्य काम भी


गैरजरूरी हो गया !

मुख्य अतिथि के साथ

उतरवाई तस्वीरें
एल्बम में जमा हो
एक दिन
राजतिलक तक
करवाती नज़र आती हैं
शिलापट्टिका पर खुदा
मुख्य अतिथि का नाम
अटल रहता है
मगर उसका लगाया
एक मात्र पौधा
एकांत में मुरझा कर
दम तोड़ देता है
मुख्य अतिथि को भी
उद्घाटन व समापन पर
पौधा लगाना
बहुत भाता है
दुबारा मगर वह
उस पोधे को देखने
कभी नहीं आता है ।

रक्तदान का भी

होता है उद्घाटन
रक्तदाता एक
प्रेरक अनेक
खड़े हो जाते हैं उसे घेर
मुख्य अतिथि के साथ
जो हो जाते हैं गायब
कैमरे की क्लिक
और
मुख्य अतिथि के साथ
फिर चल पड़ती हैं
प्रेस विज्ञप्तियां
अगले दिन की
प्रतिष्ठा के लिए
ये अखबारी कतरने
सचमुच
बहुत काम आती हैं ।

बहुत छोटी है दुनिया


बहुत छोटी है
यह दुनिया
आंख खोलता हूं
तो दिखती है
बन्द करता हूं तो
हो जाती है ओझल !


साफ है
बड़ी नहीं है
मेरी आंखों से
यह दुनिया
तभी तो
समा जाती है
मेरी आंखों में !

गज़ब ग़ज़ल


बहुत सुन्दर है तस्वीर आप की ।
मिलती नहीं मगर शक्ल बाप की ।।
पहन कर भी दिखते हो नंगे ।
डाला करो पतलून नाप की ।।
खा कर आए हो जूत बीवी से ।
बातें करते हो संताप की ।।
अब समझ आया टूटी कैसे ।

लेडीज चप्पल बाटा छाप की ।।
मूंछें रख कर मत समझो यार ।
संतान हो राणा प्रताप की ।।

( दसवीं में पढ़ते वक्त 1974 में लिखी थी । आज सफाई के दौरान मिली )
 आज कोई प्यारा सा सपना देख ।
आज कोई अपनों में अपना देख ।।
कयासों में गुजर जाती है ज़िन्दगी ।।
हकीक़त को पड़ता है तपना देख ।।

============================
 .
आकाश में कौई रोया है जार-जार ।
तभी तो आंसू बरस रहे हैं बार-बार ।।

===============================

मसला रोटी का था


भूखा था बच्चा
रोया-चिल्लाया
देखा ना गया तो
मां के मुख से
बात फिसल गई
मसला रोटी का था
घर से मचल कर

बाहर निकल गई ।

घर से निकली

आई सड़क पर
आए नेता न्यारे-न्यारे
लग गया मजमा
गड़ गए तम्बू
धरना चालू
हो गया चंदा
चल गया धंधा
लग गए नारे
प्यारे - प्यारे-
"रोजी-रोटी दे न सके
वो सरकार निकम्मी है
जो सरकार निकम्मी है
वो सरकार बदलनी है"

भूखा नत्थू

बैठा धरने
अनिश्चितकाल तक
भूखा मरने
कोई न उठ कर
ऐसा आया
जो बोले
मैं रोटी लाया
जो भी आया
नारे लाया
लाल-हरे
नीले-पीले
केसरिया-तिरंगे
झंडे लाया !

अखबारों में

छप गई खबरें
खबरों की खातिर
सब गर्जन आए
अगले ही दिन
नेताओं के वर्जन आए
पढ़-पढ़ नेता गले मिलें
और हाथ मिलाएं !

नत्थू बोला

इस खर्चे से
रोटी देते
काहे इतनी तुम
तोहमत करते
उठा रहा हूं
अपना धरना
धरने पर भी
जब भूखा मरना
फिर इस धरने का
क्या करना
मेरी भूख बहाना है
तुम को संसद जाना है ?

देश के लिए

आज
देश के लिए
जान देने की नहीं
जान लेने की
दरकार है ।

जान दे कर
क्या इस देश को
उन के हवाले
छोड़ जाएंगे
जो इस देश को
लूट-लूट खाएंगे ?

चिंतन और चिंताएं


चिन्ताएं अपनी-अपनी
उन पर
अपना-अपना चिंतन
किसी की चिंताओं में
बढ़ती चर्बी
घटता वज़न
चेहरे की झुर्रियां

फैलते मुहांसे
झड़ते बाल
बदलती स्किन
हेयर स्टाइल
आईब्रो शेप
टोटल लुक है ।

किसी को चिंताओं में

बैंक बैलेंस
शेयर का उतार-चढ़ाव
कार का मॉडल
नई पीढ़ी का बाइक
नया बंगला
घर में पड़ी नगदी
बिगड़ती औलाद है ।

कुछ की चिंताओं में है

हसीन चेहरा
उलझी-सुलझी लट
गाल गुलाबी
नयन शराबी
चाल मस्तानी
पायल की झंकार
पहला-पहला प्यार !

इन चिंताओं में

दुबले पड़ते लोग
लिख -लिख कविताएं
अपनी चिंताएं
संवार रहे हैं !

अपना नत्थू

रोटी की चिंता में
जागता है दिन भर
रोटी की चिंता में ही
सोता है रात भर
सपनों में भी
सेकता है रोटियां
जब खूट जाती हैं
सपनों में रोटियां
उचक कर
जाग जाता है
काम की तलाश में
भाग जाता है ।

परेशानी


उसे वह
परेशान दिखी
उसने कहा
चिंता छोड़ो
मुझे बताओ
अपनी परेशानी
जो भी हो

मैं हूं ना !

वह बोली

यही तो है परेशानी
कि तुम हो !

थूक मंथन


समुद्र मंथन कर
निकाल लिए थे
देवताओं ने रत्न
विष और अमृत
कर लिया था
मृत्युलोक को खुशहाल
फिलहाल

हमारे नेताओं ने
उसी तर्ज पर
किया है शुरु
थूक मंथन !

इस थूक मंथन में
पैंसठ सालों के दौरान
यत्न से भी
नहीं निकला
अब तक कोई रत्न
अमृत के आसार
देते नहीं दिखाई
यत्र-तत्र विष की
बह गई नदियां।

अनेकानेक राहू
बैठे हैं आंख गढ़ाए
अमृत के लिए
घात लगाए
विषपान के लिए
एक भी नहीं है शिव !

चलो !
हम ढ़ूंढ़ कर लाएं
कोई शिव
जो पी सके इस बार
थूक मंथन में निकलता
अविरल गरल
जो हो जाए नीलकंठ
या फिर
हम ही हो जाएं शिव !

अपना घर


हर कोई
बहुत खुश है
अपने ही घर में
आदमी तो बहुत जादा !

घर से बिछुड़ते वक्त

होता है उदास

रोता है बहुत
जब होता है
घर से बहुत दूर
घर की याद में
घर का आदमी ।

कुछ आदमी
अपने घर
कांच के बर्तन में
रखते हैं मछलियां
जो नहीं है
उनका घर
मछलियों का दर्द
अपने दर्द सा
क्यों नहीं समझता आदमी !

====================

वक्त गुजरेगा ;
इसी इंतजार में
न जाने कितने लोग
वक्त से पहले
गुज़र गए ।

अधिकार और कर्त्तव्य


सच बोलना
अधिकार है तुम्हारा
तुम ने मगर
अपने अधिकार का
बेजा उपयोग किया है
कर्त्तव्य की तरह
सच जो बोल दिया है

इसकी सज़ा
तुम्हें ज़रूर मिलेगी !

तुम ने

सच बोल कर
अपना कर्त्तव्य भुलाया है
तुम्हारी समझ में
यह क्यों नहीं आया है
कि सच बोलना
तुम्हारा कर्त्तव्य नहीं है !

आस

.

जब सब सो गए
अपने-अपने घरों में
पसर गया सन्नाटा
सड़कों पर आ
आसमान की तरफ
अपने मुख उठा
भौंकने लगे

मोहल्ले भर के कुत्ते
आवारा कुत्तों की
तान में मिला दी तान
पालतु कुत्तों ने ।

कुछ लोगों ने कहा

यह निनाद है कुत्तों का
पहरेदारी का ऊसूल
कुछ ने कहा
कुत्तों को दिखती हैं
मृत आत्माएं
ये भौंकते हैं उन पर
कुछ लोगों ने
दबी जुबान कहा
भूखे हैं कुत्ते
दरवाजा बन्द कर
सोने वालों को
दे रहे हैं गालियां
लोगों के सो जाने पर
रोटी की आस टूट गई
बस इसी बात पर
इनकी रुलाई छूट गई !

ओजोन में छेद


विश्व भर के
नेताओं ने कहा
आसमान की
ओजोन परत में
बड़ा सा छेद है
उस छेद को
जल्दी भरना होगा

वरना शीघ्र ही
समूचे विश्व को
बेमौत मरना होगा !

भारतीय नेता बोला

इस में तो जरूर
किसी दुष्यन्त कुमार का
खतरनाक हाथ होगा
भारत में जा कर
उसे ढ़ूंढ़-ढांढ़ कर
अंदर धरना होगा !
*
भारतीय नेता
भारत मे आ कर बोला
आसमान में एक छेद है
उसको भरना होगा
इसके लिए
गांव-गांव में जा कर
चंदा करना होगा
विपक्षी बोले
चंदा होगा तो
राजघाट पर
विशाल धरना होगा ।
आखिर में जा कर
संयुक्त रात्रि भोज पर
मसला हल हो गया
दिल मिल गए
छेद पड़ा रहा
भेद खुल गए !

आने दो सपनों को


लम्बी व सकून भरी
निरापद रात में भी
दिखें मनवांछित सपने
जरूरी तो नहीं !

हमारा जिस्म

चाहे गौरा हो

या फिर हो काला
कभी भी तन के रंग
सपनों में नहीं उतरते
मन को रंगते है
दुनियावी इन्द्रधनुष में
उभरे वर्ण-अवर्ण
चाहे अखरती रहें
रंगविहीन प्रतिक्रियाएं
सपनों में तो प्रतिबिम्ब
हो ही जाते हैं प्रत्यक्ष ।

स्याह रात में

उजले सपने
उजली रात में
स्याह सपने
आ ही जाते हैं
चाह के विरुद्ध
जिस दुनिया से
हम तक आते हैं
मीठे-कड़वे सपने
वह कहीं और नहीं
हमारे ही भीतर
रची गई होती है
हमारे ही द्वारा !

रोको नहीं

आने दो सपनों को
सपने जब भी आते हैं
ले कर कुछ नहीं
कुछ न कुछ
जाते हैं दे कर
चाहे वह हो
अगली रात की नींद !

घर भी करता है याद


Photo: Om Purohit Kagad
.  
घर भी करता है याद
=============
घर से दूर होने पर
घर के लोग ही नहीं
घर भी करता है
हमारा इंतजार
भले ही है बेजान
घर की हर चीज
करती है याद
हमारी छुअन !

बहुत दिन बाद
हम जब आते हैं
अपने घर
घर की दहलीज
दरवाजा और खिड़ियां
लगते हैं मुस्कुराते हुए
मानो कर रहे हैं
खुल कर
हमारा स्वागत !

आंगन में बैठ
चाय पीते हुए
हर चुस्की में
टपकती सी लगती है
प्याले की खुशी
भोजन की थाली में
माँ के हाथ पकी
सब्जी और रोटियां
हमारे आगमन पर
झूमती सी दिखती हैं ।

गहन रात्रि में
जब हम जाते हैं
सोने के लिए
कितना खिलखिलाती हुई
हमें सुलाती सी लगती है
हमारे घर की खाट
छत तो जैसे
अपलक
निहारती ही रहती है
रात भर हमें !

घर से दूर होने पर
घर के लोग ही नहीं
घर भी करता है
हमारा इंतजार
भले ही है बेजान
घर की हर चीज
करती है याद
हमारी छुअन !

बहुत दिन बाद
हम जब आते हैं
अपने घर
घर की दहलीज
दरवाजा और खिड़ियां
लगते हैं मुस्कुराते हुए
मानो कर रहे हैं
खुल कर
हमारा स्वागत !

आंगन में बैठ
चाय पीते हुए
हर चुस्की में
टपकती सी लगती है
प्याले की खुशी
भोजन की थाली में
माँ के हाथ पकी
सब्जी और रोटियां
हमारे आगमन पर
झूमती सी दिखती हैं ।

गहन रात्रि में
जब हम जाते हैं
सोने के लिए
कितना खिलखिलाती हुई
हमें सुलाती सी लगती है
हमारे घर की खाट
छत तो जैसे
अपलक
निहारती ही रहती है
रात भर हमें !

मैं अब पेड़ नहीं


एक रात अचानक
मेरा समूचा कमरा
जंगल में तब्दील हो गया
दरवाजे-खिड़िकियां
मेज-कुर्सियां
पलंग-सोफों में
निकल आई टहनियां

टहनियों पर पत्ते
पत्तों के बीच फूल
फूलों के बीच फल
फलों पर पक्षी
फूलों पर भंवरे
समूचा कमरा
जंगल की तरह
चहक गया गुंजार से
महक गया महक से
फिर तो मेरे कमरे में
बहार सी आ गई !

जंगल की बहार में

मैं भी बह गया
पेड़-पौधों से लिपट
गाने लगा तराने
किसी की थर्राती हुई
तेज आवाज आई
"जंगल छोड़ दो"
मैँ चिल्लाया
मैं जंगल नहीं छोड़ूंगा
वह पेड़ भी बोला
जिस से लिपटा था मैं
मैं अब पेड़ नहीं
महज पलंग हूं
खिड़कियां-दरवाजे भी
नहीं हैं पुष्पित पौधे
हमें छोड़ दो
अचानक आंख खुल गई
सामने खड़ी
माँ कह रही थी
अब पलंग छोड़ दो !

अपने दिनों की बात


वो कहा करते थे
बहुत सुन्दर हैं
तुम्हारे दांत
अनार के दानों सरिखे
मोती से बिखर जाते हैं
चारों दिशाओं में
जब खिलखिलाती हो

सुनाई देती है
तुम्हारी हसी की खनक
मैं मुस्कुरा कर कहती
कितना झूठ बौलते हो
देखो तो
आज चबाए नहीं जाते
रोटी के दो कोर
दादी बता रही थी
अपनी सहेली को
अपने दिनों की बात !

पास ही बैठा

ठहाका मार कर हसा
उसका पोता
बोला-
बुड्ढ़े भी देखो
कितना झूठ बोलते हैं !

मुस्कुराती हुई

दादी ढूंढ़ने लगी
पोते के चेहरे में
अपना और "उनका" चेहरा
दादी खो गई
और गहरे अतीत में !

प्रेम एक सफर है


एक लड़के से
एक लड़की मिली
दोनों में क्या बात हुई
इस पर
बातें घड़ी गई

बातें बनाई गई

बातें उड़ाई गई


बातें बिगाड़ी गई
बातें बिगड़ीं तो
बातें चलाई गई
बातें चल गईं तो
बात बिठाई गई
बात बैठ गई तो
बात बन गई
बात बन गई तो
बात जमीं नहीं
बात जमी नहीं तो
बात समझाई गई
बात मगर थमी नहीं
युग बीत गए
बात किस्सा बन गई
किस्से चल निकले तो
प्रेम कहानी कहलाए
फिर तो वही प्रेम
उदाहरण बन गया
मंदिर-मज़ार भी बने
किस्से सुनाए जाने लगे
कहानी पढ़ी जाने लगी
उदाहरण दिए जाने लगे
शीश नवाए जाने लगे
चादरें चढ़ने लगीं
मेले सजने लगे
प्रेम पर मगर
पाबंदी यथावत रही ।

आज भी

प्रेम उचकता है
कान उठते हैं
जुबान चलती है
बातें निकलती हैं
प्रेम मगर थमता नहीं ।
प्रेम एक सफर है
बातों पर ही
हो कर सवार
शायद आया है प्रेम
इस सदी तक !