बुधवार, अक्तूबर 31, 2012

आग मत देख


=========
मेरे गीतों में    अनुराग मत देख ।
दर्द में रपटी है   ये राग मत देख ।।
आंखों से   बहते हैं    शीतल झरने ।
दिल मे दहकी है वो आग मत देख ।।
आदम के जाए भर हैं    ये आदमीं ।
दिल में बैठे हैं    वो नाग मत देख ।।
वो बुत देख पुजवा रहा है खुद को ।
बदले हैं पत्थरों के भाग मत देख ।।
अपनी ही चादर को रख पाक साफ ।
उनके दामन पर हैं दाग मत देख ।।

रविवार, अक्तूबर 28, 2012

* द्वंद्व *


जब तलक वर्ण
छितरे रहे
न बटोर सके
मूरत अमूरत संवेदनाएं
जब से लगे हैँ बनाने
अपने अपने समूह
उतर आए उनमेँ
दृश्य-अदृश्य-सदृश्य

आकार-निराकार
उभरने-झलकने लगे
सुख-दुख-मनोरथ
आकांक्षाएं-लालसाएं
द्वंद्व-युद्द
अकारण सकारण सकल !

समवेतालाप

और एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !

कहीं नहीं है खेतरपाल


सूख गई
वह खेजड़ी
जिस में निवास था
खेतरपाल का
जिस पर धापी ने
चढ़ाया था अकाल को भगाने
सवा सेर तेल
और
इक्कीस का प्रसाद ।


ज्यों का त्यों है अकाल
मगर
खेजड़ी के तने पर
आज भी चिकनाई है
चींटे अभी भी घूमते हैं
सूंघते हैं
प्रसाद की सौरम
परन्तु
नहीं है आस-पास
कहीं नहीं है खेतरपाल ।

रोमांच भरी स्मृतियां


अचानक याद आ जाना
गोलगप्पे का स्वाद
गोल बाज़ार में लगी
आलू-टिक्की की
चाट सजी रेहड़ी का
स्मरण हो आना
केवल जीभ की नहीं है
सहज सक्रियता
मन की भी होती है
अदृश्य संलग्नता ।

चाट की रेहड़ी से

गोल बाज़ार तक
मोहल्ले का मार्ग
मार्ग के चरित्र
रेहड़ी पर खड़े भी तो
हुए होंगे अंकित मन में
किसी ने तो
पुकारा होगा जरूर
उन्हें देखने की चाहत
उचक आई होगी
उन सब पर
भारी तो नहीं हो सकता
जीभ का स्वाद ।

कुछ स्मृतियां

देती हैं केवल रोमांच
देती नहीं कभी शब्द
मिलते हैं जो भी शब्द
उनकी सदृश्ता
होती नहीं मुखर
कितना अच्छा लगता है
रोमांच भरी स्मृतियों में!

राम-रावण

जब तक
आज का राम
दुबक कर रहेगा
तब तक
आज का रावण
नहीं मरेगा !

विजय दिवस नहीं


सदियों से
रावण दहन हो रहा है
आज फिर
धू-धू कर जला
बुराई पर
अच्छाई की विजय के
नारे हुए बुलन्द !

समूचे देश में
कोनें-कोनें से
असंख्य रावणों ने
घनघोर अट्टहास किया
बुराई की नहीं
बुराई के प्रतीक की
पराजय हुई है
अच्छाई की नहीं
अच्छाई के प्रतीक की
विजय हुई है
यह जय-पराजय
केवल प्रतीकों की
जय-पराजय है
झांक कर देखिए
मैं तो यथावत हूं
आज भी आपके दिलों में
ठीक वैसे ही
जैसे भूख रोटी से ही
होती है शान्त
रोटी के प्रतीक से नहीं
उसी तरह
बुराई के दहन हेतु
खुद बुराई को जलाना होगा
बुराई के पुतलों को नहीं

आनन फानन में

नहीं जला करता दशानन
रावण को मार कर
जलाने के लिए
अपने ही भीतर
उतरना पड़ता है
लड़ना पड़ता है
खुद से निर्णायक युद्ध !

आप ने तो अब तक

लकड़ी-बारूद
कागज-प्लास्टिक
जला-जला कर
मेरे दहन के बहाने
और और बुराइयों को
दिया है जन्म
इस पर भी गर्वित हो
पराजय को
विजय कह कर !

बुधवार, अक्तूबर 24, 2012

*फासले*

=()-()-()-()=

कदम हम चार चले
सामने तुम्हारे
तुम भी चले
कदम चार
मगर
अपने ही पीछे !
यूं न कभी
अंत हुआ सफर का
न फासले ही कम हुए !

आहटोँ पर
कान लगाए
चलते रहे
चलते रहे
न बतियाए
किसी पल
सफर के बीच
पड़ाव तलक
न आया जो कभी !

बस
परस्पर मुस्कुराहटेँ
ढोती रहीँ
अनाम सम्बन्धोँ को
हमारे बीच
अनवरत !

राजस्थानी कविता का अनुवाद

* प्रीत *
न तुम ने की
न मैँने की
फिर भी
हुई प्रीत!
प्रीत न जन्मी
न पली
वह तो थी
शाश्वत
हम तुम
महज माध्यम बने
जिन मेँ
उतरी प्रीत !

इश्क

चिता की आग तो
तीन दिन में
हो जाती है शांत
और
आग इश्क की
सारी उम्र जलाती है ।

चिता की आग

मिटाती है
देह का अस्तित्व

मगर
इश्क की आग
ताउम्र सुलगाती है
आशिक की देह !
++++++++++++
सब से पहले देश है, उसके पीछॆ राम ।
उजडा़ देश नहीं बसे,यह समझे आवाम

सोमवार, अक्तूबर 22, 2012

*सम्बन्ध*

*

टूट कर
अलग हो जाए पत्ता
मगर
एहसास रहता है
शेष शाख पर
सम्बन्धोँ के अतीत
होने का !

थे जो कभी
साकार मुखर
आज निराकार
धार असीम मौन
स्मृतियोँ मेँ
फिर फिर से
लेते हैँ आकार
बतियाऊं कैसे
स्मृतियोँ के एहसास से !

सम्बन्ध नि:शब्द जन्मे
नि:शब्द रहे
नि:शब्द ही
कर गए प्रयाण
अर्थाऊं कैसे
असीम मौन औढ़ कर !

रविवार, अक्तूबर 21, 2012

राजस्थानी कविता का हिन्दी अनुवाद

[] प्रीत []

हम नें भी की
तुम नें भी की
प्रीत ।

हम नें भी पाली
तुम नें भी पाली
रीत ।
परन्तु तुम
न छोड़ सके
रीत ।
और हम से
न छूटी
प्रीत ।

आज हमारे पास है
प्रीत ही प्रीत
परन्तु तुम पाले हुए हो
केवल
रीत की प्रीत !

उत्तरविहीन सवाल


============
कुछ लोग
बुन कर ताना-बाना
कूट रचित तानों का
घड़ते हैं सवाल
निकल पड़ते हैं
पाने उनका जवाब
जो नहीं मिलता उन्हें
वे लौटते हैं
ले कर प्रतिप्रश्न
जिनका होता नहीं
होता ही नहीं
कोइ जवाब
खुद उनके पास ।

वे भूल जाते हैं
जवाब होता है
हमेशा सवालों का
तानों का नहीं
तानें उत्पन करते है
असीम तनाव
जो देते हैं जन्म
उत्तरविहीन सवालों को
ऐसे ही सवालों से
मैं भर गया हूं
आज आकंठ
जो चटखा रहे हैं
आज मेरी कनपटियां !

*सपना*


जब
सपने आते हैँ
तो
नीँद नहीँ आती
और
जब नींद आती है
तो
सपना नहीँ आता ।

पैसे पेड़ पर नहीं लगते


=<>=<>=<>=<>=
मुझे याद आया
बचपन में मैंने
अठन्नी बो कर
खूब सींचा था
गमले की मिट्टी को
दस दिन तक
नहीं उगा कोई बिरवा

तब पटक कर
फोड़ दिया था गमला
टूटने की आवाज सुन
दादाजी ने आ कर पूछा
क्यों फोड़ दिया गमला ?

मेरे जवाब पर
खूब हंसे थे दादाजी
मैंने कहा था
गमला गंदा है
गमले की मिट्टी गंदी है
इस में बोया
पैसों का बीज नहीं उगा
पैसों का पेड़ लगता तो
घर में तंगी नहीं रहती !

दादा जी बोले
कोई भी मिट्टी
गंदी नहीं होती
बीज ही उपयुक्त नहीं होता
पैसों का पेड़
गमले की मिट्टी में नहीं
मेहनत की मिट्टी में ऊगता है
वह पेड़ दिखता नहीं
बस पैसे देता है
आज गांठ बांध लो बेटा
पैसे कभी पेड़ पर नहीं लगते !

पच्चास साल पहले
दादाजी की बात
आज फिर किसी को
खुल कर समझ आई है
पैसे पेड़ पर नहीं लगते
बधाई है !

वही रहेगा : मैं नहीं


**************
अपने हाथों से
कंघी करता आया हूं
पता नहीं कब
कनपटियों से हो कर
न जाने कहां-कहां
उतर आई है सफेदी !

कितना तेजी से
बदल रहा हूं
जब कि मैं
समय नहीं हूं !

मेरे ही भीतर
शायद बैठा है कहीं
कुंडली मारे समय
जौ खींच रहा है
मुझे अपनी ओर
मैं उसकी ओर
जा रहा हूं
उधड़ता हुआ
वही रहेगा
मैं नहीं !

पसन्द

मजदूर और किसान
हर दिन
जागते हैं मुंह अंधेरे
सोते हैं आंख अंधेरे
बीच के वक्त
बहाते हैं पसीना
सूरज की पहली किरण
नहीं है पहली पसन्द
अंतिम पसन्द भी
नहीं है चांदनी ।

नियति है
नियमित खटना
तिल-तिल घटना
हो भी कैसे
पहली और अंतिम
पसन्द किसी की
तपता सूरज
शीतल चांद !

पेट उठाता है
देखता है सूरज
लगाता है हाजरी
भूख सुलाती है
आंकती है चांदनी
तब पकती है बाजरी ।

शहर नहीं देखता
ऐसे दिन-रात
देखता ही नहीं
सूरज की पहली किरण
शीतल रात की चांदनी
कहानियों के अलावा ।

दर्द

उभरता क्यूं है
अक्स उसका
हल्की सी बात में ।
उतरता क्यूं है
दर्द दिल का
बहकी सी रात मे ।

क्या पढे़गा भला कोई **

*

आंखों से एक सपना खो कर आया हूं  ।
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

कांधे पर मेरे  हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं

न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां  इस कदर ।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लाया हूं ॥

क्या पढे़गा भला कोई  इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥

न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥

निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥

= सुनहरी यादें =

============

============

हमारी याद
आती है उनको
बताती है हमें
याद उनकी
जो जाती नहीं !


कुछ यादों का
याद आना भी
बहुत जरूरी है
वरना चली जाती हैं
बहुत कुछ
अपने भीतर समेट कर
यादें सुनहरी
जैसे कि मुझे याद है
हम दोनों मुस्कुराए थे
एक दूसरे से छुप कर
जब कि दोनों का पता था
हम मुस्कुराए हैं
फिर भी
बने रहे अनजान !

([]) मैं ही भागा था ([])



मेरे घर के गमले में
पल्वित पुष्प
उतना नहीं महके
जितना महके
मेरे खेत के पुष्प
यही बन गया
मेरी चिन्ता
जो पसरती गई
मैं भी पसरा
बदलता रहा
रात भर करवटें
नींद मगर नहीं आई !

सवाल मेरे थे
मगर जवाब भी था
मेरे ही पास
जो दिला नहीं सका
खुद से खुद को
अपने ही सवालों से
जूझता रहा रात भर
हल्क तक आ कर
डूबते रहे उत्तर
आती फिर कैसे नींद !

भोर में
सूरज की किरणों ने
रंग बरसाए
जो मिल गए यकसां
जड़ और चेतन को
चेतन चहका-महका
जड़ की क्रियाएं
सुप्त ही रहीं
मेरी तरह !

मैं चिल्लाया
सुन लो दुनिया वालो
यही है उत्तर
जो मौन है अभी
नींद तो आई थी
मैं ही भागा था
दूर नींद से !

बड़ी थी प्यास


*=*=*=*=*=*=*

मृग था चंचल
दौड़ा स्वछंद
यत्र तत्र सर्वत्र
असीम थार में
पानी न था कहीं
प्यास थी आकंठ

प्यास ही ने उकेरा
लबालब सागर
मृगजल भरा
थिरकते थार में।

भरी दोपहरी
रचा पानी
उभरा अक्स
थार में
ले कर मृगतृष्णा
जिसकी चाहत
थमे दृग पग
भटक मरा मृग !

थार से
बड़ी थी प्यास
मरी नहीं
रही अटल
मृगी की आंख
थार में थिर !

देश के लिए

आज
देश के लिए
जान देने की नहीं
जान लेने की
दरकार है ।

जान दे कर
क्या इस देश को
उन के हवाले
छोड़ जाएंगे
जो इस देश को
लूट-लूट खाएंगे ?

मैं अब पेड़ नहीं


==========
एक रात अचानक
मेरा समूचा कमरा
जंगल में तब्दील हो गया
दरवाजे-खिड़िकियां
मेज-कुर्सियां
पलंग-सोफों में
निकल आई टहनियां
टहनियों पर पत्ते
पत्तों के बीच फूल
फूलों के बीच फल
फलों पर पक्षी
फूलों पर भंवरे
समूचा कमरा
जंगल की तरह
चहक गया गुंजार से
महक गया महक से
फिर तो मेरे कमरे में
बहार सी आ गई !

जंगल की बहार में
मैं भी बह गया
पेड़-पौधों से लिपट
गाने लगा तराने
किसी की थर्राती हुई
तेज आवाज आई
"जंगल छोड़ दो"
मैँ चिल्लाया
मैं जंगल नहीं छोड़ूंगा
वह पेड़ भी बोला
जिस से लिपटा था मैं
मैं अब पेड़ नहीं
महज पलंग हूं
खिड़कियां-दरवाजे भी
नहीं हैं पुष्पित पौधे
हमें छोड़ दो
अचानक आंख खुल गई
सामने खड़ी
माँ कह रही थी
अब पलंग छोड़ दो !

अपने दिनों की बात


============
वो कहा करते थे
बहुत सुन्दर हैं
तुम्हारे दांत
अनार के दानों सरिखे
मोती से बिखर जाते हैं
चारों दिशाओं में
जब खिलखिलाती हो
सुनाई देती है
तुम्हारी हसी की खनक
मैं मुस्कुरा कर कहती
कितना झूठ बौलते हो
देखो तो
आज चबाए नहीं जाते
रोटी के दो कोर
दादी बता रही थी
अपनी सहेली को
अपने दिनों की बात !

पास ही बैठा
ठहाका मार कर हसा
उसका पोता
बोला-
बुड्ढ़े भी देखो
कितना झूठ बोलते हैं !

मुस्कुराती हुई
दादी ढूंढ़ने लगी
पोते के चेहरे में
अपना और "उनका" चेहरा
दादी खो गई
और गहरे अतीत में !

करते रहे बातें

आसमान छूने की
करते रहे बातें ताउम्र
जमीन पर चलने का
मगर सलीका ना आया
गिरे जब
ठोकर खा कर गिरे
जमीं से ही पाया सहारा
आसमान हाथ ना आया!

ना कोई आघात कर

ना कोई आघात कर ।
आ बैठ जरा बात कर ।।
जो पिछड़े हैं तुम से ।
ना उनसे पक्षपात कर ।।
भूखे यतीम बस्ती में ।
चिंता तो दिन रात कर।।
हमवतन हैं गैर नहीं ।
खुले मन मुलाकात कर।।
खेत में पड़ी है लाश ।
मौत पर बयानात कर।।

यात्रा में बहता हुआ


0000000000000
रेल में बैठे हुए
हमें लगता है
केवल हम ही व्यस्त हैं
इस यात्रा में
बाहर झांकेँ तो
खिड़की के उस पार
व्यस्त नजर आता है
सकल जागत
यात्रा में बहता हुआ !

पेड़-पहाड़-नदियां
गांव-खेत-ढाणियां
खिड़की के सामने
कितनी तेजी से
पास आ आ कर
जाते हैं हम से दूर
जैसे मची हो होड़
झलक दिखाने की !

रेल के साथ
हम दौड़ रहे हैं
बिना दौड़ते हुए
हम पहुंचते हैं
गाड़ी के साथ
अगले स्टेशन
मगर कहते हैं
स्टेशन आ गया !

पेड़ के पास
हम गए या पेड़ आया
सवाल है
उत्तर पेड़ का आना है
यह भी सवाल ही है
सवाल तो यह भी है
यात्रा में बैठे हुए
क्यों भूल जाते हैं
हम तथ्यात्मक व्याकरण !

<>गलियां <>


बड़े-बड़े शहरों में
बड़ी-बड़ी सड़कें
मोहल्ला दर मोहल्ला गलियां
गलियों में फिर गलियां
हर गली मिलती है
किसी न किसी सड़क से
सड़क पर आ कर
जाया जा सकता है
हर किसी गली में
फिर भी
बड़े शहरों के बड़े लोग
बातों तक में
ढूंढ़ते हैं गलियां
गलियां न मिले तो भी
निकाल लेते हैं गलियां ।

गठरी वेदना की


===========
संवेदनाएं व्यक्त करना
लगता है जितना आसान
उतना ही मुश्किल है
संवेदित हो कर
संवेदनाओं से गुजरना
भोगते हुए वेदना !

निजी ही होती हैं वेदनाएं
जो भोगनी पड़ती हैं
हरेक को खुद
शब्दों में बंध कर
भले ही बन जाएं संवेदनाएं
हो जाएं व्यक्त
मुख से या फिर कागज पर
वेदना का एक सिरा
फिर भी
रहता है उद्गम पर
जैसे कि हम ने
लिख दिया कागज पर
दाती-हथौड़ा
हंसिया-फावड़ा
हमें ताव न आया
उन को चलाते वक्त
मजदूर को आया पसीना !

गठरी वेदना की
मन के भीतर
बंधती-खुलती
मन ही पाता
इसके ताप-संताप
मन तक जा कहां पाते
हम और आप !

शब्द तो नहीं बदलते


।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
पायल की झंकार सुन
लिख दिए तुम ने
अगणित छंद
गा दिए ऊंचे स्वर में
मधुरिम गीत
लिखी नहीं कभी
एक भी पंक्ति
भूखे की पुकार पर
मासूम बच्चों के
क्रंदन अपार पर !

कभी जनवादी
कभी राष्ट्रवादी
कभी प्रगतिशील
क्यों हो जाते हो कवि
तुम कवि हो तो
कवि क्यों नहीं रह पाते
हर बार
बदलते ही सरकार
बन कर झंडाबरदार
क्यों डट जाते हो मैदान में
कह सकते हो जब मंच से
क्यों कुछ कहते हो
मंत्री के कान में !

पक्षी बन कर
क्यों बैठते हो
सत्ता की डाल
क्यों उड़ जाते हो
विपक्षी बन कर
खड़े क्यों नहीं रह पाते
हर सू जन के साथ
क्यों बदल जाती हैं
सत्य की परिभाषाएं
शब्द तो नहीं बदलते
अपने अर्थ
तुम क्यों बदल जाते हो
सर्वथा व्यर्थ !