मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

एक कविता का वाचन- "थार में प्यास" / कवि श्री ओम पुरोहित "कागद"

जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।



नीरज दइया लिखते हैं- "इसै समै / कविता बांचणौ / अनै लिखणौ / किणी जुध सूं स्यात ई कम हुवै ।" (कविता) ओम पुरोहित कागदरा च्यार कविता संग्रह प्रकाशित हुया है- अंतस री बळत(१९८८), कुचरणी (१९९२), सबद गळगळा (१९९४), बात तो ही (२००२) अर आं रचनावां में कवि री सादगी, सरलता, सहजता अर संप्रेषण री खिमता देखी जाय सकै । कवि राजस्थानी कविता रै सीगै नैनी कविता री धारा नै नुवै नांव दियो- कुचरणीअर केई अरथावूं कुचरणियां रै पाण आधुनिक राजस्थानी री युवा-पीढ़ी री कविता में आपरी ठावी ठौड़ कायम करी है । कविता नै प्रयोग रो विसय मानण वाळा केई कवियां दांई ओम पुरोहित कागदरी केई कवितावां में प्रयोग पण देख्या जाय सकै है अर एक ही शीर्षक माथै केई-केई कवितावां सूं उण विसय नै तळां तांई खंगाळणो ई ठीक लखावै । कवि रो कविता में मूळ सुर अर सोच मिनखा-जूण अनै मिनख री अबखायां-अंवळ्या खातर है जिण में कवि ठीमर व्यंग्य ई करण री खिमता राखै ।

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सोमवार, अप्रैल 19, 2010

मायड़ भाषा पेटै ओम पुरोहित 'कागद' री दोय पंचलड़ी


१. आ मन री बात बता दादी

आ मन री बात बता दादी।

कुण करग्यो घात बता दादी।।


भाषा थारी लेग्या लूंठा।

कुण देग्या मात बता दादी।।


दिन तो काट लियो अणबोल्यां।

कद कटसी रात बता दादी।।


मामा है जद कंस समूळा।

कुण भरसी भात बता दादी।।


भींतां जब दुड़गी सगळी।

कठै टिकै छात बता दादी।।


२. पूछो ना म्हे कितरा सोरा हां दादा

पूछो ना म्हे कितरा सोरा हां दादा।

निज भाषा बिना भोत दोरा हां दादा।।


कमावणो आप रो बतावणो दूजां रो।

परबस होयोड़ा ढिंढोरा हां दादा।।


अंतस में अळकत, है मोकळी बातां।

मनड़ै री मन में ई मोरां हां दादा।।


राज री भाषा अचपळी कूकर बोलां।

जूण अबोली सारी टोरां हां दादा।।


न्याव आडी भाषा ऊभी कूकर मांगां।

अन्याव आगै कद सैंजोरा हां दादा।।

शनिवार, अप्रैल 17, 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की चार हिन्दी कविताएं

१. थार में प्यास
जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।

२. स्वप्नभक्षी थार
हमने
गमलों में
नहीं उगाए सपने
रोप दिए थार में।

स्वप्नभक्षी थार
इतराया
बिम्बाई मृगतृष्णा
और दबी आहट
भख गया
रोपित सपने।
आरोपित हम
देखते रहे
आसमान में
उभरे अक्स बादल का
नहीं उभरा!

उनके सपने
गमलों रूपे
अंकुराए
गर्वाए
भरपूर लहलहाए
अब वे काट रहे हैं
सपनों की फसल
हमारे कटते नहीं दिन।

३. अभिव्यक्त नहीं मन

अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी
अभिव्यक्त नहीं मन।

तन ढकना
पेट भरना
छत ढांप लेना
यही तो नहीं
जीवित होने का साक्षी।

पंचभूत की रची काया
रखती है
कोमल मन में
रची बसी संवेदना
मुखरित होने का
पालती सपना।

सालती है
जीवेषणा भी
कुछ न पाकर
जैसे कि एक स्त्री
मानव होने का
झेलती है दंश।

अंश हैं सब
उस परमात्मा के
तो फिर क्यों हैं
अपनी-अपनी भाषाएं
अपनी-अपनी आशाएं
यदि हैं भी
तो क्यों अभिव्यक्त नहीं मन
किसी-किसी का।

४. काया का भाड़ा माया
पत्थर तोड़ती
उस महिला को
या फिर
दिन तोड़ती अबला को
देख ही लिया कवि ने
नहीं देखा;
पत्थर टूटा कि नहीं
दिन टूटा कि नहीं
झांका नहीं वहां
जहां टूटा था कुछ
दरक गया था सब कुछ।

हा!
वह तो दे ही दिया था
उस महिला ने
परोस ही दिया था उसे
थाली में बापू ने
भरी पंचायत
जब वह बाला थी।

आज ही जाना
वह तो दिल था
दीवाना नहीं था
उसका दिल
दीवाने तो लोग थे
काया के
काया का भाड़ा माया
माया की मार से
टूट ही गया था दिल।

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

वर्तमान राजस्थानी कविता में एक भरोसेमंद नाम है कवि श्री ओम पुरोहितकागद । पिछले वर्ष श्री कागद के राजस्थानी में दो कविता संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से पंचलड़ी और आंख भर चितराम प्रकाशित हुए । इन दिनों आपकी कालीबंगा शीर्षक से लिखी कविताएं चर्चा में है पिछ्ले दिनों किसी कार्य के सिलसिले में कागद जी सूरतगढ़ आए थे तब उनसे कुछ बातें हुई । उनकी बातों को प्रश्नोत्तरी रूप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है- यह चित्र एक संयोग है और मेरा सबसे पहला सवाल यही है कि क्या आप आरंभ से ही गांधीवादी विचार-धारा के रहे हैं ? यानी जो भी बुरा है उस से दूर रहते हैं ?

रविवार, अप्रैल 11, 2010

ओम पुरोहित “कागद” की चार कविताएं


थिरकती है तृष्णा

थिर थार पर

थिरकती है तृष्णा

दौड़ता है मृग

जलता है जल

टलता है जल


मरता है मृग

फाड़-फाड़ दृग

रहती है तृष्णा

देखता है थार

पूछता है थार;

कौन है बड़ा,

मृग

तृष्णा

या फिर मैं

जो रहूंगा थिर ।



पांचवें तत्व का नाम

उगता है

जब कोई

नया नन्हा पौधा

और

पूछ बैठता है

उसके होने में

काम आए

उस पांचवें तत्व का नाम

तू कैसे बता पाती होगी

बरसों से

तुझ पर नही उतरे

उस पांचवें तत्व का नाम ।


ओ भटके प्रीतम मेघ

तेरे ही वियोग में

किए बैठी है सोलह श्रृंगार

और

तू इसे

बीते यौवन की प्रौढ़ा समझ

त्याग बैठा है

सोत चेरापूंजी के घर

ओ भटके प्रीतम मेघ !

घुमड़ कर आ

औढ़ा तीतर पांखी चूनर

बैठ सोनल सेज पर

फिर देख

कैसे टूटता है गुमान

सौत चेरापूंजी के रूप का ।



फलेंगे रसाल

जब तक

सांस है

आस है;

थार के रोम-रोम पर

उगेंगे

हरियल रूंख

फलेंगे रसाल

आच्छादित होंगे

हरितपर्ण अनायास

ज्यों रोही में

सूनसान धोरे पर

उग आता है

गीला गच्च भंपोड़ ।