सोमवार, मई 31, 2010

कालीबंगा: कुछ चित्र-1 / ओम पुरोहित कागद









रेल में "कुचरणी" कविता-संग्रह का लोकार्पण

कालीबंगा: एक चित्र

इन ईंटों के
ठीक बीच में पड़ी
यह काली मिट्टी नहीं
राख है चूल्हे की
जो चेतन थी कभी

चूल्हे पर
खदबद पकता था
खीचड़ा
कुछ हाथ थे
जो परोसते थे।

इसी सीरीज की अन्य कविताओं को पढ़े...
"कविता-कोश" में या देखें एक साथ २१ कविताएं "कृत्या" में....
और कुछ सवालों के जबाब देखिए "कांकड" पर


शनिवार, मई 29, 2010

ओम पुरोहित कागद की दो हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित ‘कागद’ की दो हिन्दी कविताएंराजस्थान साहित्य अकादमी के
सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत कृति
आदमी नहीं है"१९९५" से

आखिरी कविता के लिए



कविता को
निरी कविता मत समझो
कविता तुम्हें
आगे की पंक्ति में
बैठने का हक दिलाएगी
तुम्हें
आदमी होने का पूरा
अधिकार दिलाएगी
सच पूछो तो
कविता तुम्हें तुम्हारे होने का
ऐहसास कराएगी ।

जिस दिन
हलक के दरवाजे तोड़
फुटपाथ पर आएगी
उस दिन
हर तरफ
गंगा सा पावन
सागर हिलोरें लेगा
पूर्व से निकल
पश्चिम में नहीं जाएगा
उस दिन सूरज ।

उस दिन
हर झौंपड़ी पर झांकेगा
और
अपने निकट की
उन तमाम ऊँचाइयों को
जो शोषण की नींव पर खड़ी हैं
अपने आक्रोश का लांपा लगा
झुलसा देगा सूरज ।

उस दिन
हमारे ऊपर होगा सूरज
कविता का हाथ बंटाने
और कविता
अपने समय की गवाही देने
हर चौराहे पर खड़ी मिलेगी
एकदम मुस्तैद।

मेरे दोस्तो !
कविता को
अपनी प्रेमिका के प्रेम की
पगार मत समझो
जो
आंख मिलाने पर देना चाहो ।

कविता
एक दिन
तुम से
तुम्हारी उम्र का
हिसाब मांगेगी
मांगेगी एक-एक वर्ण
जो तुम्हे गढ़ना था
तुम्हारी सदी की
आखिरी कविता के लिए ।

सच बताऊँ
उस दिन
तुम्हारी आंखें
धरती में बहुत गहरे
गड़ जाएंगी
और
तुम्हारे भीतर का आदमी
मर जाएगा
फिर
तुम खुद
तुम्हारे ‘तुम’ पर थूकोगे ।

इस बात को
शायद
तुम न जानो
कि,खुद के भीतर का थूक
खुद के बाहर को
निरुत्तर करने में
कितना सक्षम है ।

खुद को
निरुत्तर होने से बचाओ
क्योंकि
निरुत्तर होना
मृत्यु से कम नहीं है
मुखरित कर दे पत्थर को
कविता के अतिरिक्त
किसी में ऐसा दम नहीं हैं ।

मेरा गांव कहां गया



यह जो तुम
झुंड के झुंड चल रहे हो
जैसे
किसी युद्ध से जूझ कर लौट रहे हो
ठीक यहीं
हां, यहीं
मेरा गांव था
सचमुच बड़ा प्यारा गांव था ।

गांव में
हरियल छांवदार
अगणित पेड़ थे
पनघट थे
शर्मीली गौरियां थीं
झूम कर बरसता था पानी ।

वो जो दूर ठूंठ खड़े हैं
ठीक वहीं
नीम के पेड़ थे
और भी थे बहुत से पेड़
पेड़ों पर कूकती थी कोयल
उन्ही की छांव में
नाचते थे मोर
उन्ही के नीचे से
निकलता था खेतों को जाता
एक सर्पीला रास्ता
जिस पर सुनाई देती थी
किसानों
ग्वालों
गडरियों की मीठी टिचकारियां ।

अरे !
यही तो है वह रास्ता
जो शहर को जाता था
रास्ता,
जिसे हम पगडंडी कहते थे
पगडंडियों पर होते थे
कुछ आते
कुछ जाते
मानवी पैर
पगडंडियों के किनारे
होते थे हरियल कैर ।

और हां
यही उफनती थी घग्घर
जिस से जूझते हुए
हम जाते थे दूसरे किनारे
जिस को अब आप
करते हैं पार
मोटर के सहारे ।

वो
जो अब
गत्ता फैक्ट्री है
वहीं तो था
एक हराभरा
भरापूरा जंगल
जहां
बांवळी
फोग
शीशम
कीकर
खेजड़ा,जाल
रोहिड़ा और कूमटा
करते थे मंगल।

यह जो तुम्हारा पार्क है
जहां लौटते हैं कुत्ते
ठीक यहीं थी चौपाल
जिस पर
हर शाम
खेत से थके-हारे लौट
बाबा
रामू काका
फत्तू
अल्लादिता ताऊ
और बाहर से आए बताऊ


हताई करते थे ।

जरा ठहरो !
मुझे बताओ
वो मेरा गांव
कहां गया
कौन लील गया उसे
कौन छोड़ गया
कथित तरक्की पसंद धुआं ?
अब
क्यों नहीं
मंडते
पगडंडियों पर मानवी पदचिन्ह ?

तुम जाओ भले ही
इक्कीसवीं सदी में
मुझे मेरा वही गांव लौटा दो
या फिर बता दो
उस का नाम
जो मेरे गांव को लील गया ।

मंगलवार, मई 25, 2010

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएं

धूप क्यों छेड़ती है (१९८६)कविता संग्रह से

धूप क्यों छेड़ती है

उन
कई-कई
मंजिलों ऊँची
कोठियों में सोए
अमीरों को छोड़
धरातल पर
गढ्ढों में सोए मुझ को
धूप क्यों छेड़ती है ?
गहरी नींद सोने से पहले
क्यों जगा देती है ?

भूख !
उन अमीरों के
भर पेट खा कर
मखमल पर सोए
साहबजादों के पेट को छोड़ कर
मेरे नत्थू के पेट में आ कर
क्यों सो जाती है ?
क्यों कुदाल, फावड़ा और गेंती
मेरे अवयस्क नत्थू के हाथों में
आ थम जाते हैं ?
उनकी गोरी चमड़ी के
आवरण वाली हथेलियां
पोरों में सिगरेट व जाम
क्यों थाम लेती है ?

क्यों उनकी मोटी तिजोरियों में
घर बैठे ही
धन संग्रहित हो जाता है ?
मेरी फटी सी धोती की
छोटी सी अंटी
खाली क्यों रह जाती ?
क्या धूप
छप्पर फाड़ कर ‘लेना’
और
फाटक बन्द कर ‘देना’ चाहती है ?


मेरा आंगन

सड़क
दहलीज पर आ कर चली गई,
दहलीज में अटका रह गया
मेरा आंगन।
सड़क शहर घूम आई।

दिन की चका-चौध में
परछाइयों को ले
आगे पीछे होता रहा
मेरा घर।
परछाइयों को अंधेरे;
अंधेरों को आंगन पी गया।

सड़क
दहलीज पर आ कर चली गई,
दहलीज में अटका रह गया
मेरा आंगन।
सड़क शहर घूम आई।

बे-रोजगार से
बा-रोजगार हो गए हैं लोग
लेकिन
आलपिनों में अटका रह गया
मेरा आंगन।
सड़क शहर घूम आई।

झोंपड़ियों से उठ
निरीक्षण
सर्वेक्षण
बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा कर
सफेद कुर्तों की झोली में
मिट्टी को कुन्दन बना लाए है लोग
लेकिन
दो जून रोटी में अटका रह गया
मेरा आंगन।
सड़क दहलीज पर आ कर चली गई
दहलीज में अटका रह गया
मेरा आंगन।
सड़क शहर घुम आई।

धर्मनिर्पेक्ष लोकतंत्र

स्वघोषित उदेश्यों को
प्रतीक मान
मन चाहे कपड़ों से निर्मित ध्वज
दूर आसमान की ऊँचाइयों में-
फहराने भर से
लोकतंत्र की जड़ें
भला कैसे हरी रहेंगी ?

तुम शायद नहीं जानते
भरे बादल को
पेट का प्रतीक मान लेने से
यह पंचभूता नहीं मानता
पानी के समय पानी
रोटी के समय रोटी
सक्षात मांगता है।

शांति का प्रतीक
टुकड़ा भर सफेद कपड़ा
बरसों बाद भी
मुठ्ठी भर देश को
चैन-ओ-अमन
कहां दे पाया है ?

हरित क्रांति का प्रतीक
तुम्हारा हरा रंग
आयात से चलकर
निर्यात तक
कहां पहुंच पाया है ?

......और अड़तीस साल बाद भी
तुम्हारी राष्ट्रीयता को
निष्ठा
और
बहादुरी के रंग में
कहां रंग पाया ?

हां, यह जरुर है
तुम्हारा केसरिया
रंग लाया है
तभी तो
हर देशवासी
बे-ईमानी भ्रष्टाचार
भूखमरी
गरीबी
बे-रोजगारी
और
देशद्रोह के रंग में
आकंठ रंग गया है
और इनके समक्ष
बलिदान के लिए
हिम्मत के साथ
डटा हुआ है।

चौबीस तीलियों वाला-
धर्म-चक्र आज भी
साम्प्रदायिकता की गाड़ी
उत्तर से दक्षिण
पूर्व से पश्चिम तक
कितनी बे-शर्मी से ढो रहा है,
और तुम्हारा लोकतंत्र
तिरंगा ओढ़
धर्म निर्पेक्षता की
झूठी
गहरी
नींद सो रहा है।

मंगलवार, मई 18, 2010

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ



ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ
धूप क्यों छेड़ती है कविता संग्रह (१९८६) से

आ ऋतुराज !

पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?

अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।

क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?

आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।

तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।

तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।

मैं देशद्रोही नहीं
मैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।

सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।

मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।

मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।

मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।

मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।

पत्थरों के शहर में
वो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खडाऊ ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।

उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।
ऋतुराज !
पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?

अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।

क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?

ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।

तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।

तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।

मैं देशद्रोही नहीं हूँ
मैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
गरीबी की रेखापटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।

सामने सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।

मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।

मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।

मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।

मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।

पत्थरों के शहर में
वो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खड़ाÅ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।

उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।

ओम पुरोहित कागद की हिन्दी तीन कविताएँ

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ

(कविता संग्रह धूप क्यों chedh

ऋतुराज !पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?

अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।

क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?

ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।


तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।

तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।



मैं देशद्रोही नहीं हूँमैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
गरीबी की रेखापटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।

सामने सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।

मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।

मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।

मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।

मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।

मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।


पत्थरों के शहर मेंवो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खड़ाÅ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।

उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।