ओम पुरोहित ‘कागद’ की दो हिन्दी कविताएंराजस्थान साहित्य अकादमी के
सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत कृति
आदमी नहीं है"१९९५" से
आखिरी कविता के लिए
सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत कृति
आदमी नहीं है"१९९५" से
आखिरी कविता के लिए
कविता को
निरी कविता मत समझो
कविता तुम्हें
आगे की पंक्ति में
बैठने का हक दिलाएगी
तुम्हें
आदमी होने का पूरा
अधिकार दिलाएगी
सच पूछो तो
कविता तुम्हें तुम्हारे होने का
ऐहसास कराएगी ।
जिस दिन
हलक के दरवाजे तोड़
फुटपाथ पर आएगी
उस दिन
हर तरफ
गंगा सा पावन
सागर हिलोरें लेगा
पूर्व से निकल
पश्चिम में नहीं जाएगा
उस दिन सूरज ।
उस दिन
हर झौंपड़ी पर झांकेगा
और
अपने निकट की
उन तमाम ऊँचाइयों को
जो शोषण की नींव पर खड़ी हैं
अपने आक्रोश का लांपा लगा
झुलसा देगा सूरज ।
उस दिन
हमारे ऊपर होगा सूरज
कविता का हाथ बंटाने
और कविता
अपने समय की गवाही देने
हर चौराहे पर खड़ी मिलेगी
एकदम मुस्तैद।
मेरे दोस्तो !
कविता को
अपनी प्रेमिका के प्रेम की
पगार मत समझो
जो
आंख मिलाने पर देना चाहो ।
कविता
एक दिन
तुम से
तुम्हारी उम्र का
हिसाब मांगेगी
मांगेगी एक-एक वर्ण
जो तुम्हे गढ़ना था
तुम्हारी सदी की
आखिरी कविता के लिए ।
सच बताऊँ
उस दिन
तुम्हारी आंखें
धरती में बहुत गहरे
गड़ जाएंगी
और
तुम्हारे भीतर का आदमी
मर जाएगा
फिर
तुम खुद
तुम्हारे ‘तुम’ पर थूकोगे ।
इस बात को
शायद
तुम न जानो
कि,खुद के भीतर का थूक
खुद के बाहर को
निरुत्तर करने में
कितना सक्षम है ।
खुद को
निरुत्तर होने से बचाओ
क्योंकि
निरुत्तर होना
मृत्यु से कम नहीं है
मुखरित कर दे पत्थर को
कविता के अतिरिक्त
किसी में ऐसा दम नहीं हैं ।
मेरा गांव कहां गया
यह जो तुम
झुंड के झुंड चल रहे हो
जैसे
किसी युद्ध से जूझ कर लौट रहे हो
ठीक यहीं
हां, यहीं
मेरा गांव था
सचमुच बड़ा प्यारा गांव था ।
गांव में
हरियल छांवदार
अगणित पेड़ थे
पनघट थे
शर्मीली गौरियां थीं
झूम कर बरसता था पानी ।
वो जो दूर ठूंठ खड़े हैं
ठीक वहीं
नीम के पेड़ थे
और भी थे बहुत से पेड़
पेड़ों पर कूकती थी कोयल
उन्ही की छांव में
नाचते थे मोर
उन्ही के नीचे से
निकलता था खेतों को जाता
एक सर्पीला रास्ता
जिस पर सुनाई देती थी
किसानों
ग्वालों
गडरियों की मीठी टिचकारियां ।
अरे !
यही तो है वह रास्ता
जो शहर को जाता था
रास्ता,
जिसे हम पगडंडी कहते थे
पगडंडियों पर होते थे
कुछ आते
कुछ जाते
मानवी पैर
पगडंडियों के किनारे
होते थे हरियल कैर ।
और हां
यही उफनती थी घग्घर
जिस से जूझते हुए
हम जाते थे दूसरे किनारे
जिस को अब आप
करते हैं पार
मोटर के सहारे ।
वो
जो अब
गत्ता फैक्ट्री है
वहीं तो था
एक हराभरा
भरापूरा जंगल
जहां
बांवळी
फोग
शीशम
कीकर
खेजड़ा,जाल
रोहिड़ा और कूमटा
करते थे मंगल।
यह जो तुम्हारा पार्क है
जहां लौटते हैं कुत्ते
ठीक यहीं थी चौपाल
जिस पर
हर शाम
खेत से थके-हारे लौट
बाबा
रामू काका
फत्तू
अल्लादिता ताऊ
और बाहर से आए बताऊ
हताई करते थे ।
जरा ठहरो !
मुझे बताओ
वो मेरा गांव
कहां गया
कौन लील गया उसे
कौन छोड़ गया
कथित तरक्की पसंद धुआं ?
अब
क्यों नहीं
मंडते
पगडंडियों पर मानवी पदचिन्ह ?
तुम जाओ भले ही
इक्कीसवीं सदी में
मुझे मेरा वही गांव लौटा दो
या फिर बता दो
उस का नाम
जो मेरे गांव को लील गया ।
जरा ठहरो !
मुझे बताओ
वो मेरा गांव
कहां गया
कौन लील गया उसे
कौन छोड़ गया
कथित तरक्की पसंद धुआं ?
अब
क्यों नहीं
मंडते
पगडंडियों पर मानवी पदचिन्ह ?
तुम जाओ भले ही
इक्कीसवीं सदी में
मुझे मेरा वही गांव लौटा दो
या फिर बता दो
उस का नाम
जो मेरे गांव को लील गया ।
विकास के इस बाज़ ने हमारे कई पंछियों के पर नोचे हैं कागद जी.
जवाब देंहटाएंसबसे बड़ी बात तो आदमियत को ढूंढना मुश्किल हो गया है.
और कविता यही हिसाब मांगेगी.
जवाब कौन देगा?
संवेदनशील कविताएँ. आभार
वाह! इन रचनाओं की तारीफ के शब्द कहाँ से लाऊ, सिर्फ एक ही शब्द है, बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंमुझे बताओ
जवाब देंहटाएंवो मेरा गांव
कहां गया
कौन लील गया उसे
कौन छोड़ गया
कथित तरक्की पसंद धुआं ?
अब
क्यों नहीं
मंडते
पगडंडियों पर मानवी पदचिन्ह ?
सशक्त कविता ......
आने में जरा देर हुई वजह मै नहीं कंप्यूटर था .....
दोनों रचनाएँ बहुत सटीक और सशक्त...
जवाब देंहटाएंओम जी दोनो ही रचनाये एक से बढ कर एक, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपकी रचानाएं अंतरजाल के पष्ठों पर देख कर बेहद खुशी होती है. पढ़ी हुई रचनाएं भी इस कम्प्यूटर पटल पर शानदार दिखाई देती है. कविता के बारे में आपके विचार या रचना प्रक्रिया भी लिखें कुछ संस्मरण भी कविता लेखन को लेकर. मेरी बधाई और शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंआगामी दिनोँ मे मैँ अपने रचनाकर्म, रचनाप्रक्रिया व प्रतिबद्दता को ले कर जरूर लिखूंगा । अभी मैँ अंतरजाल पर नया हूं एवम कम्प्यूटर की प्रक्रियाएं सीख रहा हूं। जब हाथ जम जाएगा तो अपनी रचना प्रक्रिया यानी सृजन प्रक्रिया के 40 साल भी यहां लाऊंगा ।बहुत से संस्मरण भी इधर अटके हैँ उन्हेँ भी आप यहां आगामी दिनो मेँ पढ़ेँगे । फिलहाल तो जो बन पड़ रहा है वही आपके सहयोग से कर रहा हूं।अब तक के काम मेँ आपका, डा.मदन लड्ढ़ा,मेरी बेटी अंकिता,नरेन्द्र व्यास व अजय सोनी रांधण का अविस्मरणीय सहयोग है वरना यह सब इस उम्र मेँ कहां संभव था।सहयोग व तकनीकी मार्गदर्शन यथावत जारी रखेँ।
जवाब देंहटाएंजरा ठहरो !
जवाब देंहटाएंमुझे बताओ
वो मेरा गांव
कहां गया
>>> बहुत खूब गुरूजी. आपने तो गांव की नये सिरे से याद दिला दी. इधर नेट पर आपकी बढती सक्रियता चर्चा का विषय है. ये अच्छा है कि रचनाएं नेट पर मिलने से चलते फिरते भी पढा जा सकता है. हो सकता है कि इससे पढने की एक नयी विधा ही निकल आए. नेट पर पढना. जब मन हो पढ लिया. सादर..
सम्वेदनशील मन से बही सम्वेदना की गंगा सी कविता!
जवाब देंहटाएंएक नही कई गाँव लील गई हमारी उन्नति,हमारा विकास.शायद धीरे धीरे जिन पग-डंडियों पर पद चिह्न ढूँढते हैं,वहाँ ना रस्ते होंगे ना पग डंडियाँ .विकास सब को लील जायेगा जैसे लील गया गांवों का भोलापन और अपनत्व.
कविता
जवाब देंहटाएंएक दिन
तुम से
तुम्हारी उम्र का
हिसाब मांगेगी
मांगेगी एक-एक वर्ण
जो तुम्हे गढ़ना था
तुम्हारी सदी की
आखिरी कविता के लिए ।
bahut hi prabhawshali
bahut khub
जवाब देंहटाएंshandar kavita
badhai aap kjo is ke liye
बहुत अच्छी कविताए है दोनों ही पढ़कर मजा आ गया
जवाब देंहटाएंbahut achchi kavitayen hai
जवाब देंहटाएंkavita uncha sthaan dilwayegi aur gaanv wali bhi bahut pasand aayi