शनिवार, अक्तूबर 01, 2011

कुछ ताज़ा हिन्दी कविताएं

* मेरी चाह नहीं*
 
सागर खंगालूं
पहाड़ खोदूं डालूं
सोध लूं अंतस धरा का
सूरज और चांद को
... रौंद डालूं कदमोँ तले
आकाश हो मुठ्ठी मेँ
जमीन कदमो तले
सकल शक्ति करूं धारण
मनुपुत्र होँ इशारोँ पर
और फिर चलूं
धरा का वैभव समेट ,
यह मेरी नहीँ
तुम्हारी ही कामना है
ओ दम्भी पुरुष !

मैँ बांटती
निजता अपनी
खो कर अपना स्व
कातर जग के
पल-क्षण उठते
प्रलाप ताप तिमिर पर
हो द्रवित बहाती आंसू
तुम न जान सके
कोमल अंतस मेरा
आदिम शक्ति
घर तेरे करती बसेरा
तुम चाहो अंवेरना
वैभव शक्ति यश विजय
मैँ स्त्री समर्पणगामी
जननी तेरी
तेरे वैभव की
करती कामना
रहे अक्षुण सकल तेरा
मेरी नहीँ कोई चाह घनेरी !
** आशंकित मैँ **
 
मुझे याद है
मैँने कहा था
एक दिन तुम्हें
उन्मुक्त हो कर ;
... मैँ तुम मेँ
समा जाऊं !
मौन रह
तुम ने
शर्मा कर
दे दी थी स्वीकृति
जिन्दगी खिसक आई
बहुत करीब !

फिर एक दिन
तुम ने भी कहा
उसी तरह
उन्मुक्त हो कर
मैँ तुम्हारे भीतर
समा जाऊं
चाहता है दिल !
यह सुन
धड़क क्यों गया था
मेरा दिल !

क्या मेरा मैँ
मेरे भीतर
नहीँ देना चाहता था
एक स्त्री को जगह
याकि मेरा पौरुष ही
भयभीत था स्त्री से !

बहुत दूर से
मेरे घर आई तुम
निपट अकेली
फिर भी
कितनी बेखौफ़ थी
मैँ असंख्य अपनोँ के बीच
अपने ही घर
कितना आशंकित था ?
कमजोर तुम नहीँ
मैँ ही था !
 
** आओ खत लिखेँ **
 
मोबाइल और मेल से
समचारोँ का
नकद भुगतान रोक कर
आओ
... आज फिर से खत लिखेँ
खत मेँ
सारी गत लिखेँ
खुशियां लिखेँ
गम लिखेँ
शिकवे लिखेँ
शिकायत लिखेँ
फिर करेँ इंतजार
खत के पहुंचने का
कुछ वक्त मगर
जरूर लगेगा
आओ
तब तक सोचेँ
शायद तब तक
खुशियां फैल जाएं
दसोँ दिशाओँ मेँ
गम दम तोड़ जाएं
हमारे शिकवे शिकायत
हमारी ही
नासमझी घोषित हो जाए !

आओ उड़ाएं
अपनी अपनी छत से
एक एक कबूत्तर
जो ले कर जाए
अपनी चोँच मेँ
प्रीत की पाती
जिसे बांटे धरा पर
कुछ ले जाएं
बादलोँ के पार
जहां हो सकते हैँ
हमारे अंशी
मानव वंशी !