ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ
धूप क्यों छेड़ती है कविता संग्रह (१९८६) से
आ ऋतुराज !
पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?
अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।
क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?
आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।
तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।
तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।
मैं देशद्रोही नहीं
मैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।
मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।
मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।
मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।
मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।
पत्थरों के शहर में
वो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खडाऊ ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।
उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।
पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?
अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।
क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?
आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।
तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।
तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।
मैं देशद्रोही नहीं
मैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।
मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।
मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।
मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।
मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।
पत्थरों के शहर में
वो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खडाऊ ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।
उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।
निहाल कर दिया कागद जी !
जवाब देंहटाएंअत्यन्त अनुपम और साहित्यिक कवितायें .................
बाँच कर मन अभिभूत हो गया
बहुत ही अच्छी लगी आप की तीनो रचनाये.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत सुन्दर रचनाएँ, मेरे पास इन रचनाओं की तारीफ़ के शब्द नहीं है, बहुत दिनों बाद इस तरह की बेहतरीन रचनाएँ पढने को मिली है, दिल से तारीफ़ कर रहा हूँ, धन्यवाद्!
जवाब देंहटाएंबेहद आभार आपके प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए.
जवाब देंहटाएं"आपकी तीनो ही रचनाये अपने आप में एक अलग ही रंग लिए हैं....तीनो ने ही प्रभावित किया.."
regards
पहली बार अवसर मिला यहाँ आपको पढने का....
जवाब देंहटाएंतीनो कविताएँ अपने अपने विषय में सम्पूर्ण....बहुत बढ़िया...
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का शुक्रिया
यहाँ आ कर भी हौसला बढ़ाएं..
http://geet7553.blogspot.com/
बहुत बढिया कवितायें .
जवाब देंहटाएंएक एक रचना ही लिखा कीजिये पुरोहित जी ,क्योंकि ऎसी सशक्त रचना को पचने में भी समय लगता है और मेरे पास हाजमा तेज करने की कोई दवा नहीं है
जवाब देंहटाएंनत्थू के बेटे के लिए पत्थर की आँख भी नहीं है
सुरजी के लिए धानी रंग का जोड़ा भी नहीं है
परन्तु उच्च रक्तचाप की दवा है लेकिन वो इतने कड़े पत्थर जैसी लकडियाँ हैं कि मैं पीस नहीं पास रही ,मशीन की ब्लेड दो बार टूट चुकी है ,अब सोच रही हूँकि लकडियाँ ही भेज दूँ ,आप पिसवा ही लेंगे
कागद जी ,आपकी कविताएँ पढ़े बिना कैसे रह सकता हूँ.
जवाब देंहटाएंआपकी इन कविताओं में आक्रोश का स्वर बहुत तल्ख़ है,जो एक संवेदनशील कवि की आवश्यक परिणति है.
परिवेश की विसंगतियों और विषमताओं का सटीक खुलासा किया है आपने .
प्रगतिशीलता की प्रवृत्ति तीनों कविताओं का श्रृंगार है.
अस्तु.
ॐ कैसे शुक्रियादा करूँ, फिर-फिर पढने वाली कविताएँ पहले सुनी थीं, अब फिर पढने को मिल रहीं हैं.....क्या बात है...... " आ ऋतुराज
जवाब देंहटाएंखाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।" या फिर........ "मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता। "............... या फिर.........
" उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है। "............ धन्यवाद,,,,,,,,,,,,
आप की तीनो रचनाये बहुत ही अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंआदर जोग ॐ जी ,
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम ,
आप की तीनो रचनाये बेहतरीन है , मेरी पसंद की कविताए '' आ ऋतु राज आ '' और पत्थरों के शहर में '' है , बखूबी से आप ने दोनों कविताओं के वातावरण को और शिल्प को मांजा है , कौनसी पंक्तिया कोट करू कौनी नहीं दुविधा है , नए लिखारो को आप से कुछ सिखने को ही मिलेगा , ऐसा मेरामानना है ,
साधुवाद
आदरणीय ओमजी की तीनो ही रचनाएं समाजवाद और अन्त्योदय की भावना से ओतप्रोत और संवेदनशील है जिसमे आपकी पीड़ा भी परिलक्षित होती है..कहते हैं साहित्य समाज का आइना होता है..और सच्चा साहित्यकार वोही है जो अपने सृजन धर्म का पालन समष्टि भाव से आईना बनकर करता है..आपकी कविताओं में एक सच्चे कवि और साहित्यकार होने के सभी भाव परिलक्षित होते हैं...और इसी कारण आपकी ये रचनाएँ बेहद भावुकता के साथ अंतर्मन को झकझोर कर सोचने पर मजबूर करती हुई सार्थकबन पड़ी है. सबसे खास बात ये है की इन कविताओं में मुझे मुंशी प्रेमचंद और श्री प्रसाद जी जैसी अभिव्यक्ति का अहसास हुवा. कहीं आप प्रकृति को माध्यम बनाकर समाज में व्याप्त विसंगतियों, आडम्बरों और खोखलेपन को भी बखूबी उभारने में सफल हुवे हैं तो कहीं मंदिर में भगवान की आँख के नवीन प्रतिबिम्ब के माध्यम से आप सामाजिक विषमताओं का सटीक और यथार्थ चित्रण करते हुवे प्रतीत होते हैं...जिसमे आप सफल भी हुवे हैं...
जवाब देंहटाएं..इन रचनाओं के बारे में जितना भी कहूँ, कम होगा...संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा... की बेहद ही यथार्थ, संवेदनशील और उच्चस्तरीय रचनाएं हैं आपकी...साधुवाद !! प्रणाम ! जय राजस्थान ! जय भारत !!
आपकी तीनों रचनाएं स्तरीय,बेहतरीन और लाज़वाब है ओमजी।
जवाब देंहटाएंआपकी सारी रचनाएँ बहुत ही सुन्दर और शानदार लगा! बधाई!
जवाब देंहटाएंआपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! आपने बिलकुल सही कहा है! मेरा घर समंदर के किनारे है ऑस्ट्रेलिया में और इंडिया में भी इसलिए मेरे पास तरह तरह के शंख का क्लैक्सन है और मैं जहाँ भी घूमने जाती हूँ वहाँ से भी शंख का क्लैक्सन करती हूँ!
जवाब देंहटाएंpehli baar aapke blog par aaya aur aapka fan ho gaya hun me
जवाब देंहटाएंhttp://bejubankalam.blogspot.com/
तीनों ही कवितायें अलग-अलग विषय पर लिखी गयीं निहायत ही खूबसूरत रचनाएं हैं सर.. लघुकथा के बारे में आपका निर्दिष्ट करना बहुत अच्छा लगा.. आगे से कोशिश करूंगा कि और भी कम शब्दों में बात कह सकूं. स्नेह बनाये रखें.
जवाब देंहटाएंmanmohak teeno kavitae :)
जवाब देंहटाएंhttp://liberalflorence.blogspot.com/
http://sparkledaroma.blogspot.com/
UN SAB MITRON EVAM PATHKON KO DHANYWAD JO MERE BLOG PAR AAYE .MERI KAVITAYEN PADH KAR TIPPNI KARNE WALE PRABUDH PATHKON KA AABHAR !PADH KAR MANAN KARNE WALON KO SADHUWAD !AASHA HAI MERA UTSAH BADHATE RAHENGE !
जवाब देंहटाएंSir Aap ne to ak katu schchai bya ki hai.
जवाब देंहटाएं