ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएँ
(कविता संग्रह धूप क्यों chedh
आ ऋतुराज !पेड़ों की नंगी टहनियां देख,
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?
अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।
क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?
आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।
मैं देशद्रोही नहीं हूँमैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।
मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।
मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।
मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।
मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।
पत्थरों के शहर मेंवो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खड़ाÅ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।
उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।
तू क्यों लाया
हरित पल्लव
बासंती परिधान ?
अपने कुल,
अपने वर्ग का मोह त्याग,
आ,ऋतुराज!
विदाउट ड्रेस
मुर्गा बने
पीरिये के रामले को
सजा मुक्त कर दे।
पहिना दे भले ही
परित्यक्त,
पतझड़िया,
बासी परिधान।
क्यों लगता है लताओं को
पेड़ों के सान्निध्य में ?
उनको आलिंगनबद्ध करता है।
अहंकार में
आकाश की तरफ तनी
लताओं के भाल को
रक्तिम बिन्दिया लगा,
क्यों नवोढ़ा सी सजाता है ?
आ ऋतुराज !
बाप की खाली अंटी पर
आंसू टळकाती,
सुरजी की अधबूढ़ी बिमली के
बस,
हाथ पीले कर दे।
पहिना दे भले ही
धानी सा एक सुहाग जोड़ा।
तूं कहां है-
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।
तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।
डोलती बयार में,
सूरज की किरणों में ?
कब आता है ?
कब जाता है
विशाल प्रकति को ?
लेकिन तू आता है
आधीरात के चोर सा ;
यह शाश्वत सत्य है।
तेरी इस चोर प्रवृति पर
मुझे कोई ऐतराज नहीं,
पर चाहता हूं ;
थोड़ा ही सही
आ ऋतुराज
खाली होने के कारण,
आगे झुकते
नत्थू के पेट में कुछ भर दे।
भर दे भले ही,
रात के सन्नाटे में
पत्थर का परोसा।
मैं देशद्रोही नहीं हूँमैं मानता हूं
मैं स्वतन्त्र भारत की देह पर फोड़ा हूं,
लेकिन मैं अजेय नही हूं।
बस,अपने भीतर दर्द रखता हूं,
इसीलिए अछूत हूं,
दोषी हूं।
मैं अक्षम नहीं हूं,
भूखा हूं।
भले ही आपने मुझ पर-
‘गरीबी की रेखा’ पटक कर,
छुपाने का असफल प्रयास किया है।
फिर भी मैं
तुम्हारे लिए भय हूं,
कि, कोई दबा पड़ा है।
सामने न सही
अपने ही मस्तिष्क में,
मुझ से हाथ मिलाते हो तुम।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
भले ही मैं,
राष्ट्रीय ध्वज पहन लेता हूं।
क्यों कि मैं नंगा हूं।
मैं देशद्रोही नहीं हूं ;
चाहे मैं-
राष्ट्रीय गीत पर खड़ा नहीं होता,
क्यों कि, मैं
फावड़ा थामे कढ़ाई पर झुका हूं,
और पीठ पर समय
भूख के चाबुक लिए खड़ा है।
मैं बे-बस हूं।
तभी तो-
मैं अपना श्रम बेचता हूं।
मैं न्याय क्या मांगूं?
न्याय संविधान में छुपा है।
मेरी पीठ कमजोर है।
संविधान को ढ़ो कर
अपने गांव नही ला सकता।
मैं निराशावादी हूं।
तभी तो-
मैनें अपनी अंगुली,
तुम्हारे मुंह में दे रखी है,
खून चूसने के लिए।
मै इंसान नही हूं;
वोट हूं।
तभी तो-
आश्वासनों पर लुढ़कता हूं।
पेटी में बंद हो,
पांच साल तक-
शांत पड़ा रहता हूं।
मैं मॉं हूं!
तभी तो सह लेता हूं,
जमाने भर के कष्ट
तुम्हारी खुशी के लिए।
पत्थरों के शहर मेंवो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खड़ाÅ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।
उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।
शानदार रचनाएँ !
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