आंतरिक अकुलाहटयह लम्बी कविता ख्यातनाम शायर राजेश चड्ढ़ा के आग्रह पर मेरे कविता संग्रह "धूप क्यों छेड़ती है" (१९८६) से। कविता के साथ ख्यातनाम कार्टूनिस्ट मस्तान सिंह द्वारा बना कर भेंट किया मेरा कैरीकैचर।
आंतरिक अकुलाहट
परिवार नियोजन का पट्ट
आपने टांगा है
उस गरीब की झोंपड़ी पर।
‘दो या तीन’ का नारा
जुबान पर उसकी
सुराख निकाल कर टांग दिया है।
बच्चों की लम्बी भीड़ देख कर
तुम हंसे जरूर हो।
क्या कभी इसकी वजह पूछी है,
उस बिना छत की-
झोंपड़ी में रहने वाले सरजू से ?
मैने पूछा है!
तमतमाती धूप में
बोझा ढोने वाले उस ताड़ से।
वह बोला था ;
सा‘ब
आजादी की धूप में
अधिकारों की भूख में
हजारों पेट की क्षुधा मिटा
दिन भर हजारों मन ढो कर
तीन जनों के लिए
तीन रोटी जुटाता हूं।
इस बीच
यदि अपनी पीठ को
धनुषाकार में पाता हूं,
तो मखमली गद्दे कहां से जुटाउं ?
बस चमेली के बल,
पीठ के बल निकाल लेता हूं।
क्या करूं।
क्या दोष है मेरा ??
चम्पेली और सीतू
कम्बख्त मूर्ख है,
जो भूखी मां के पेट को छोड़ कर
इस भूखी दुनिया में आ गये।
भूखों मरेंगे साले!
ये भी भोगेंगे,
कोई और भोगेगा
इनके बाद।
चमेली भी बोली थी ;
सा‘ब
दिन भर
खाली हंडिया में--
कड़छी हिलाते-हिलाते
हाथ तो ऐंठ ही जाता है!
भूखे बच्चों का रोना-
बन्द तो करना ही होता है।
वो,जो रंगीन भीड़ है,
उसको-
गरीब बच्चे का रोना
कष्ट देता है।
बस,
उनका गाल रंगना पड़ता है।
ऐसे में हाथ ऐंठ ही जाता है।
यदि सीतू का बाप,
अपनी पीठ के बल निकालता है,
तो मैं भी अपने हाथों की ऐंठन
उसके पिंजराये सीने के इर्द-गिर्द
अपनी बाहें लपेट कर-
निकाल लेती हूं।
क्या दोष है मेरा ?
कल तक मैं बच्ची थी,
साड़ी बांधना सीखी थी
कि, सीतू आ गया,
सीतू आया नही
कि चम्पेली आ गई।
अब एक और मेरे पेट की भूख में
तप रहा है
बाहर आने को।
सा‘ब!
ये ‘दो या तीन’ का पट्ट
हमें दे दो ?
खुली छत है,
ढंप जायेगी,
इस बार-
सर्दी बे-औलाद चली जायेगी।
कुछ तो बोली थी
चमेली की पड़ौसिन झुनिया।
सा‘ब!
मैने परिवार नियोजित करने की सोच
कॉपर-टी लगवाई थी।
ये बिजिया कमबख्त
जन्म से पहले की भूखी थी
गर्भाशय में घुसते ही,
कॉपर-टी खा गई।
तभी तो-
कॉपर-टी सी बाहर आ गई
....ना मुराद.......अभी भी भूखी है।
गली की आवारा कुतिया के-
स्तन काटती है।
सामने वाले सा‘ब की कोठी पर,
जूठे बर्तन चाटती है
और
डांट खाकर,
दोपहर उनके ही फर्श पर काट लेती है।
कमबख्त,
रात भर मेरे खाली पेट पर,
लातें मार कर
बुढाये नन्हे हाथों से
मेरे स्तन ढूंढती है।
आकारोंकी अनुपस्थिति पा,
मुझे छोड़
सुबह,
कुतिया के सीने से लग कर रोती है।
मेरे हिस्से की रोटी से,
एक रोटी ले,
उस कुतिया को देती है।
कमबख्त, उसकी आंखों में
प्यार,
दुलार,
ममता
और मेरा अक्स तलाशती है।
मुझे दुत्कार,
उसे पुचकारती है।
सा‘ब
मुझे रोटी नहीं
मेरी ममता को
ममत्व का अधिकार दे दो!
रिक्त आंखों को दे दो!
किन्ही ऐसे क्षणों के लिए
वात्सलय के दो आंसू !!
आंतरिक अकुलाहट
परिवार नियोजन का पट्ट
आपने टांगा है
उस गरीब की झोंपड़ी पर।
‘दो या तीन’ का नारा
जुबान पर उसकी
सुराख निकाल कर टांग दिया है।
बच्चों की लम्बी भीड़ देख कर
तुम हंसे जरूर हो।
क्या कभी इसकी वजह पूछी है,
उस बिना छत की-
झोंपड़ी में रहने वाले सरजू से ?
मैने पूछा है!
तमतमाती धूप में
बोझा ढोने वाले उस ताड़ से।
वह बोला था ;
सा‘ब
आजादी की धूप में
अधिकारों की भूख में
हजारों पेट की क्षुधा मिटा
दिन भर हजारों मन ढो कर
तीन जनों के लिए
तीन रोटी जुटाता हूं।
इस बीच
यदि अपनी पीठ को
धनुषाकार में पाता हूं,
तो मखमली गद्दे कहां से जुटाउं ?
बस चमेली के बल,
पीठ के बल निकाल लेता हूं।
क्या करूं।
क्या दोष है मेरा ??
चम्पेली और सीतू
कम्बख्त मूर्ख है,
जो भूखी मां के पेट को छोड़ कर
इस भूखी दुनिया में आ गये।
भूखों मरेंगे साले!
ये भी भोगेंगे,
कोई और भोगेगा
इनके बाद।
चमेली भी बोली थी ;
सा‘ब
दिन भर
खाली हंडिया में--
कड़छी हिलाते-हिलाते
हाथ तो ऐंठ ही जाता है!
भूखे बच्चों का रोना-
बन्द तो करना ही होता है।
वो,जो रंगीन भीड़ है,
उसको-
गरीब बच्चे का रोना
कष्ट देता है।
बस,
उनका गाल रंगना पड़ता है।
ऐसे में हाथ ऐंठ ही जाता है।
यदि सीतू का बाप,
अपनी पीठ के बल निकालता है,
तो मैं भी अपने हाथों की ऐंठन
उसके पिंजराये सीने के इर्द-गिर्द
अपनी बाहें लपेट कर-
निकाल लेती हूं।
क्या दोष है मेरा ?
कल तक मैं बच्ची थी,
साड़ी बांधना सीखी थी
कि, सीतू आ गया,
सीतू आया नही
कि चम्पेली आ गई।
अब एक और मेरे पेट की भूख में
तप रहा है
बाहर आने को।
सा‘ब!
ये ‘दो या तीन’ का पट्ट
हमें दे दो ?
खुली छत है,
ढंप जायेगी,
इस बार-
सर्दी बे-औलाद चली जायेगी।
कुछ तो बोली थी
चमेली की पड़ौसिन झुनिया।
सा‘ब!
मैने परिवार नियोजित करने की सोच
कॉपर-टी लगवाई थी।
ये बिजिया कमबख्त
जन्म से पहले की भूखी थी
गर्भाशय में घुसते ही,
कॉपर-टी खा गई।
तभी तो-
कॉपर-टी सी बाहर आ गई
....ना मुराद.......अभी भी भूखी है।
गली की आवारा कुतिया के-
स्तन काटती है।
सामने वाले सा‘ब की कोठी पर,
जूठे बर्तन चाटती है
और
डांट खाकर,
दोपहर उनके ही फर्श पर काट लेती है।
कमबख्त,
रात भर मेरे खाली पेट पर,
लातें मार कर
बुढाये नन्हे हाथों से
मेरे स्तन ढूंढती है।
आकारोंकी अनुपस्थिति पा,
मुझे छोड़
सुबह,
कुतिया के सीने से लग कर रोती है।
मेरे हिस्से की रोटी से,
एक रोटी ले,
उस कुतिया को देती है।
कमबख्त, उसकी आंखों में
प्यार,
दुलार,
ममता
और मेरा अक्स तलाशती है।
मुझे दुत्कार,
उसे पुचकारती है।
सा‘ब
मुझे रोटी नहीं
मेरी ममता को
ममत्व का अधिकार दे दो!
रिक्त आंखों को दे दो!
किन्ही ऐसे क्षणों के लिए
वात्सलय के दो आंसू !!
बिलकुल सही चित्रिण किया है आपने | दिनभर बोझा ढोने वाले मनोरंजन भी करे तो कैसे ? सुख ढूंढे भी तो कहां ? जाएं भी तो कहां अपने दिन भर की थकान को मिटाने ? कोल्हू के बैल की तरह पिसने के बाद भी नजीता वो ढाक के तीन पात.. दो या तीन रौटी की जुगाड में कब परिवार पांच से सात में तब्दील हो जाता है, वो नहीं जानता | जब पेट भरा हो तो संसार जगमगाता सा पतीत होता है पर जब भूख सताए तो क्षण भर का सुख, दिन भर की थकान को अपनी आगोश में ले लेता है | श्रद्धेय ओमजी ने बेहद यथार्थ अभिव्यक्ति की है | साधुवाद ।।
जवाब देंहटाएंक्या बात है जी, बहुत खुब ओर सही लगी आप की यह कविता.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जन्म से पहले की भूखी थी
जवाब देंहटाएंगर्भाशय में घुसते ही,
कॉपर-टी खा गई।
तभी तो-
कॉपर-टी सी बाहर आ गई
....ना मुराद.......अभी भी भूखी है।
बहुत खूब ......!!
ये भूख आदमी से जाने क्या क्या करवा दे ......
मस्तान सिंह द्वारा बना कैरीकैचर भी बढिया ......
शायर राजेश चड्ढ़ा जी का भी शुक्रिया जिनकी वजह से आपने ये कविता लिखी ......!!
यथार्थ का सुन्दर चित्रण किया है आपने ओमजी।
जवाब देंहटाएंMERE PRAYAAS KO SARAHA , JISKE LIYE AAP SAB KA DHANYAAVAAD , BAVISHYE ME BHI AUR ACHCHAE CARICATURES BANANE KA PRAYAAS KARUNGA .
जवाब देंहटाएंOM JI AAP KI RACHNA BHI ACHCHI LAGI .BADHAI ! !
aapke shabdo ne aisa chal chitr paish kiya ki man se ek hook si nikal gayi....aisi gareebi shabdo me dhalti hui itni bhookhi zindgi bas kya kahu mastishk me ek shor sa chhod gayi.
जवाब देंहटाएंॐ जी धन्यवाद. दरअसल ' धुप क्यूँ छेड़ती है ' की कविताएँ सर्व-हारा की कविताएँ हैं. यूँ तो आप की हर कविता मन को छू जाती है लेकिन इस संग्रह का कुछ भी पढ़ता हूँ तो ना जाने क्यूँ आप की अखबार-नवीसी, दीनदयाल जी की मक्कासरी नौकरी, नरेश विद्यार्थी जी का ठरका, महेश संतुष्ट जी के खील- बताशे, मेरी और रविदत्त मोहता की मास्टरी के साथ-साथ बस-अड्डे के होटल में होने वाली सारी बैठकें स्मरण हो आती हैं. बहरहाल इस संग्रह की कुछ और कविताएँ, कुछ क्या सारी की सारी आने दें, मेरे साथ-साथ सभी को अच्छा लगेगा....और जो अच्छा लगे वो कर देना चाहिए. एक बार फिर शुक्रिया.
जवाब देंहटाएं25 से भी ज्यादा साल पुरानी यादेँ आप ने सहेज रखीँ हैँ।यही तो पूंजी है हमारी।वो बचपन था और ये पचपन है।पचपन मेँ बचपन बहुत याद आता है।वो दिन दिल मेँ हैँ अब।दिल के वर्क उलटते ही कोई शब्द बोल जाता है और बीते वक्त का चित्र चल पड़ता है अक्षपटल पर। उन दिनोँ को नमन !
जवाब देंहटाएंयथार्थ का सुन्दर चित्रण
जवाब देंहटाएंकोल्हू के बैल की तरह पिसने के बाद मनोरंजन करे तो कैसे ?
कहां ढूंढे सुख ?
धन्यवाद