वाह जी ! बहुत ही बढ़िया लेख है ... इंसान उस सीड़ी को भूल जाता है जिससे वो ऊपर आया है ... अपने जड़ो को भूल जाता है ... अपनी पहचान खो बैठता है ... और यहीं से आरंभ होता है पतन ...
आज 'आखर कलश' वेब पत्रिका के चार माह पूर्ण हुए हैँ।यह वेब पत्रिका मेरी प्रिय पत्रिका है अतः मैँ इसके सम्मान मेँ मेरी यह कविताएं आखर कलश से लाया हूँ। मैँ इस वेब पत्रिका के सुदीर्घ भविष्य की कामना करता हूं तथा इस के निस्वार्थ सम्पादकोँ को बधाई प्रेषित करता हूं।
///////////////////////////////// माटी के हम सब पुतले हैं। उसी से उपज कर उसी में विलीन हो जाते हैं। हमारी समस्त आवश्यकताओं की स्त्रोत माटी है। हम उसे पैरों तले रौंदते हैं परन्तु क्षमाशील माटी फिर भी हमें क्षमा करती है। माटी की महिमा का गुणानुवाद करके मूल को भूलने वालों को आपने आगाह किया है। सुन्दर रचना सार्थक संदेश ! बहुत.....बहुत.....बधाई! सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी //////////////
shraddheya shree Om ji ko mera pranaam aapkee ye kavitaa vartmaan maanviya moolyon kee sachchhai bayaan kartee hui prateet hoti hai..insaan jab kangoora ban jaata hai to bhool jaata hai apnee neev ko, jiske bagair usko wajood sambhav kadaapi nahee ho saktaa.. SADHUWAAD !!
ओम जी आज जय शंकर प्रसाद की स्कंदगुप्त नाटक में लिखी वो पंक्तिया याद आ गयी जिसमे राजा स्कंदगुप्त अपने लिए कहता है की मेरी स्थिति तो उस ढाल की तरह है जो युद्ध में सरे प्रहार सहती है लेकिन यश तो राजा को मिलता है. ऐसा ही हाल इस मिटटी का है.
वाह जी ! बहुत ही बढ़िया लेख है ... इंसान उस सीड़ी को भूल जाता है जिससे वो ऊपर आया है ... अपने जड़ो को भूल जाता है ... अपनी पहचान खो बैठता है ... और यहीं से आरंभ होता है पतन ...
जवाब देंहटाएंAj ke jeevan kee ek sachchai ko bayan karatee huyi sundar evam sashakt kavita.hardik badhai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बात कही आप ने अपनी कविता मै ... बस आदमी ही नही आदमी रहा.... वाह वाह.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आज 'आखर कलश' वेब पत्रिका के चार माह पूर्ण हुए हैँ।यह वेब पत्रिका मेरी प्रिय पत्रिका है अतः मैँ इसके सम्मान मेँ मेरी यह कविताएं आखर कलश से लाया हूँ। मैँ इस वेब पत्रिका के सुदीर्घ भविष्य की कामना करता हूं तथा इस के निस्वार्थ सम्पादकोँ को बधाई प्रेषित करता हूं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दरता से आपने जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत किया है! शानदार रचना!
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने, आदमियत कही खो गयी है आजकल!
जवाब देंहटाएंDAMDAR , SHANDAR RACHNA .
जवाब देंहटाएं/////////////////////////////////
जवाब देंहटाएंमाटी के हम सब पुतले हैं। उसी से उपज कर उसी में विलीन हो जाते हैं। हमारी समस्त आवश्यकताओं की स्त्रोत माटी है। हम उसे पैरों तले रौंदते हैं परन्तु क्षमाशील माटी फिर भी हमें क्षमा करती है। माटी की महिमा का गुणानुवाद करके मूल को भूलने वालों को आपने आगाह किया है। सुन्दर रचना सार्थक संदेश ! बहुत.....बहुत.....बधाई!
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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वास्तविकता से रूबरू कराती रचना सुकून दे गई।
जवाब देंहटाएंBadi gahan baat kah dee aapne!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दरता से आपने जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत किया है! शानदार रचना!
जवाब देंहटाएंkagad jee aap ko dekh kar man prasan ho gya. narayan narayan--govind goyal, sriganganagar
जवाब देंहटाएंshraddheya shree Om ji ko mera pranaam
जवाब देंहटाएंaapkee ye kavitaa vartmaan maanviya moolyon kee sachchhai bayaan kartee hui prateet hoti hai..insaan jab kangoora ban jaata hai to bhool jaata hai apnee neev ko, jiske bagair usko wajood sambhav kadaapi nahee ho saktaa.. SADHUWAAD !!
ओम जी आज जय शंकर प्रसाद की स्कंदगुप्त नाटक में लिखी वो पंक्तिया याद आ गयी जिसमे राजा स्कंदगुप्त अपने लिए कहता है की मेरी स्थिति तो उस ढाल की तरह है जो युद्ध में सरे प्रहार सहती है लेकिन यश तो राजा को मिलता है.
जवाब देंहटाएंऐसा ही हाल इस मिटटी का है.