रविवार, मई 02, 2010

आखर कलश में कविताएं


आदमी नहीं है

14 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी ! बहुत ही बढ़िया लेख है ... इंसान उस सीड़ी को भूल जाता है जिससे वो ऊपर आया है ... अपने जड़ो को भूल जाता है ... अपनी पहचान खो बैठता है ... और यहीं से आरंभ होता है पतन ...

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  2. Aj ke jeevan kee ek sachchai ko bayan karatee huyi sundar evam sashakt kavita.hardik badhai.

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  3. बहुत सुंदर बात कही आप ने अपनी कविता मै ... बस आदमी ही नही आदमी रहा.... वाह वाह.
    धन्यवाद

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  4. आज 'आखर कलश' वेब पत्रिका के चार माह पूर्ण हुए हैँ।यह वेब पत्रिका मेरी प्रिय पत्रिका है अतः मैँ इसके सम्मान मेँ मेरी यह कविताएं आखर कलश से लाया हूँ। मैँ इस वेब पत्रिका के सुदीर्घ भविष्य की कामना करता हूं तथा इस के निस्वार्थ सम्पादकोँ को बधाई प्रेषित करता हूं।

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  5. बहुत ही सुन्दरता से आपने जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत किया है! शानदार रचना!

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  6. सच कहा आपने, आदमियत कही खो गयी है आजकल!

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    माटी के हम सब पुतले हैं। उसी से उपज कर उसी में विलीन हो जाते हैं। हमारी समस्त आवश्यकताओं की स्त्रोत माटी है। हम उसे पैरों तले रौंदते हैं परन्तु क्षमाशील माटी फिर भी हमें क्षमा करती है। माटी की महिमा का गुणानुवाद करके मूल को भूलने वालों को आपने आगाह किया है। सुन्दर रचना सार्थक संदेश ! बहुत.....बहुत.....बधाई!
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
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  8. वास्तविकता से रूबरू कराती रचना सुकून दे गई।

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  9. बहुत ही सुन्दरता से आपने जीवन की सच्चाई को प्रस्तुत किया है! शानदार रचना!

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  10. shraddheya shree Om ji ko mera pranaam
    aapkee ye kavitaa vartmaan maanviya moolyon kee sachchhai bayaan kartee hui prateet hoti hai..insaan jab kangoora ban jaata hai to bhool jaata hai apnee neev ko, jiske bagair usko wajood sambhav kadaapi nahee ho saktaa.. SADHUWAAD !!

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  11. ओम जी आज जय शंकर प्रसाद की स्कंदगुप्त नाटक में लिखी वो पंक्तिया याद आ गयी जिसमे राजा स्कंदगुप्त अपने लिए कहता है की मेरी स्थिति तो उस ढाल की तरह है जो युद्ध में सरे प्रहार सहती है लेकिन यश तो राजा को मिलता है.
    ऐसा ही हाल इस मिटटी का है.

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