रविवार, अक्तूबर 21, 2012

([]) मैं ही भागा था ([])



मेरे घर के गमले में
पल्वित पुष्प
उतना नहीं महके
जितना महके
मेरे खेत के पुष्प
यही बन गया
मेरी चिन्ता
जो पसरती गई
मैं भी पसरा
बदलता रहा
रात भर करवटें
नींद मगर नहीं आई !

सवाल मेरे थे
मगर जवाब भी था
मेरे ही पास
जो दिला नहीं सका
खुद से खुद को
अपने ही सवालों से
जूझता रहा रात भर
हल्क तक आ कर
डूबते रहे उत्तर
आती फिर कैसे नींद !

भोर में
सूरज की किरणों ने
रंग बरसाए
जो मिल गए यकसां
जड़ और चेतन को
चेतन चहका-महका
जड़ की क्रियाएं
सुप्त ही रहीं
मेरी तरह !

मैं चिल्लाया
सुन लो दुनिया वालो
यही है उत्तर
जो मौन है अभी
नींद तो आई थी
मैं ही भागा था
दूर नींद से !

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