*चिंताएं*
कुछ लोग
रोटी के आकार पर
लड़ रहे थे
रोटी हो तो गोल हो
वरना चौकोर परांठा ठीक
कुछ और लोग
रोटी के चुपड़े होने पर
उलझ रहे थे
रोटी हो तो चुपड़ी हो
घी घर का हो
कुछ कह रहे थे
ताज़ा मक्खन ही हो
वरना क्या रोटी ?
रोटी के साथ
सब्जी पर भी
छिड़ गई जंग
कुछ हरी के पक्ष में थे
कुछ पनीर पर अड़े
कुछ सूखी के लिए लड़े
कुछ दाल-मोगर
कुछ बेसन गट्टा-कढ़ी
कुछ चटनियों पर डटे
अंत में सब की बात
करीने से रख ली गई ।
कुछ बेघर लोग
शहर से दूर
इस बात पर
एकजुट एकमत थे
आज की शाम रोटी हो
चाहे किसी भी अन्न की
किसी भी आकार प्रकार की
किसी भी घर-दर की
किसी भी जाति-धर्म की।
टाट-सरकंड़े
पॉलिथिन तप्पड़ की
इन झोंपड़ पट्टियों में
चिंताओं का विषय
घी-सब्जी-चटनी
एक बार भी नहीं बना
जब कि किसी के लिए
नहीँ था बोलना मना !
chinaen behaatreen kavita hai ..anro ke shor se alag vastava me ek pragatisheel kavita badhai
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