रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

रात मगर छोटी है
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मैंने क्या सोचा
रात भर
यह बताने के लिए
पूरा दिन पड़ा है ।

दिन के उजाले में
दिखते हैं
सवाल दर सवाल
न समाधान दिखता है
न उत्तर मिलता है ।

बच्चों के सवाल हैं
पहले मुर्गी आई
या फिर अंडा
धरती गोल क्यों है
शिक्षक का सवाल है
कब मिलेगी पगार
दोनों के सवाल
गुंथ जाते हैं परस्पर
उत्तर से पहले ।

घर में
अम्मा चीखती है
अबे ओ मास्टर
जरा सोच
किसी के घर में
जब जुड़ता नहीं कुछ
तो क्यों पढ़ाते हो
अंक गणित
क्यों बढ़ रही है
गरीबी की रेखा
बताता क्यों नहीं
तुम्हारा रेखा गणित ?

मजदूर का सवाल
थोड़ा पेचीदा है ;
मूर्तियां कभी भी
कुछ नहीं खातीं
क्यों लगाते हो भोग
इधर देखो
मैं खाता हूं
मुझे लगाओ
भूख से उत्तपन्न
कट जाएगा रोग ।

सवालों की गठरी
बड़ी है बहुत
रात मगर छोटी है
गुजर जाती है
आंखों में उतर कर
भोर में उगे-उठे
ताजा सवाल
फिर से बटोरने !

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