रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

मेरे भीतर बैठा कोई
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ना करता है
ना भरता है
मेरे भीतर बैठा कोई
नित "मैं-मैं" करता है !

देह धारती
सुख-दुख सारे
मन तो
माध्यम बनता है
खोल अवचेतन की
जूनी गठरी
घातक सपने बुनता है ।

खुद ही कहता
खुद ही सुनता
देह दौड़ाता
संग मेँ अपने
अपनी राह चला कर
उसको छलता रहता है।

खुद न दिखता
कभी किसी को
रखता चिंता
रूप सौंदर्य की
दर्पण के आगे
देह की निंदा करता है ।

उस के हाज़िर
देह भी पागल
दिन भर
डरती रहती है
साफ पता है
देह तो जिन्दा
वो ही मरता रहता है ।

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