मेरे भीतर बैठा कोई
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ना करता है
ना भरता है
मेरे भीतर बैठा कोई
नित "मैं-मैं" करता है !
देह धारती
सुख-दुख सारे
मन तो
माध्यम बनता है
खोल अवचेतन की
जूनी गठरी
घातक सपने बुनता है ।
खुद ही कहता
खुद ही सुनता
देह दौड़ाता
संग मेँ अपने
अपनी राह चला कर
उसको छलता रहता है।
खुद न दिखता
कभी किसी को
रखता चिंता
रूप सौंदर्य की
दर्पण के आगे
देह की निंदा करता है ।
उस के हाज़िर
देह भी पागल
दिन भर
डरती रहती है
साफ पता है
देह तो जिन्दा
वो ही मरता रहता है ।
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