'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, मई 20, 2012
एक हिन्दी कविता
सजल दो नयन
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कोई तन को
छू गया
कोई मन को
तन को
छूने वाले
वसूलते हैं
प्रति पल
उन क्षणों का
समूल हिसाब ।
मन को
छूने वाले
आए नहीं
कभी लौट कर
वे टांग गए
अपनी छवि
कहीं कौने में
मन के भीतर
जिसे निहार
होते हैं सजल
दो नयन
कभी-कभी एकांत में ।
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