रविवार, जनवरी 29, 2012

दो हिन्दी कविताएं

*पंछी को सुन लो*

हिलती शाख
बैठा पंछी
धारे मौन
पंख पसारे
आंखें मूंद !


आंखों में
नापता गगन
विशालता नभ की
भीतर ही भीतर
करता अवलोकन
तोलता अपने पंख पसार !


आंखों में सपना
नीड़ हो अपना
नाप गगन को
उतरूं शाख
चल पहुंचू निज नीड़
जहां न हो आदम भीड़ ।


यक-ब-यक
उड़ चला
मन उसका
पाने नया आकाश
जिस में न हो
आदम आकांक्षाओं का
यांत्रिक धुंआं
न हो गंध बारुदी
हल्ला गुल्ला
शोर शराबा मनचला ।


हुआ अचानक
एक धमाका
नीरवता तोड़ गया
सुन धमाका
टूटी तंद्रा
खुल गई आंख
सपना टूट गया
पूछो तो जा कर
पंछी कितना टूट गया !
 
*मन के साथ *


हम चल पड़े थे
आकाश में
निकालने सुराख
बीच रास्ते
लॉट आए
जब बढ़ती गईं दूरियां
धरती ओ आकाश के बीच
ऊपर उठते तो
न लौट पाने का था डर
डर तो ये भी था
कि लौटने बाद
शायद न मिले धरती भी |


हम लौट ही आए
अपने भीतर
जहां बैठा है
हमारा कातर मन ।
हमें बहुत कहा गया
मारो मन को
हम से नहीं मरा
और फिर
मारें भी क्यों मन को
जो दे देता है रस
भयावह नीरसता में भी
ले जाता है पार
यंत्रणाओं के पार
जो घड़ी गई हैं
इस नश्वर जगत में
केवल हमारे लिए
इस लिए
हम जी लेते हैं
मन के साथ ।

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