रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

{()} चिंताएं {()}






कितनी देर चलूंगा


कितनी दूर चलूंगा


ज्ञात नहीं


तभी तो थक जाता हूं


अनजान राहों पर


चलते-चलते मैं ।






भाड़े का पगेरु


मांदा मजदूर


थक कर भी


नहीं थकता कभी


जानी पहचानी राहों पर ।






मैं


थक कर


सो जाना चाहता हूं


अगले काम के लिए


वह


सो कर


थकना नहीं चाहता


अगले काम के लिए ।






मेरी और उसकी यात्रा में


लाचारी प्रत्यक्ष है


फिर अंतर क्यों आ जाता है


हमारी थकावट में ।






शायद


उसकी यात्रा में


प्रयोजन पेट


मेरी यात्रा में


प्रयोजन चिन्ताएं हैं


चिन्ताएं भी सिरफिरी ;


यह यात्रा तो


कोई मजदूर भी कर लेता


अगर दिए होते


सो पच्चास !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें