शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

*प्रीत पुराण*

प्रीत के बादल
उमड़े इधर
घुमड़े उधर
मन का मोर
नाचा बहुत
ताता थइया
कड़कीं बिजलियां
इसी ऊहापोह मेँ
बिन बरसे लौट गए ।

अब लोग कहेँ
मौसम नहीं बारिश का
औढ़ रजाई दुबको
नहीँ भरोसा शीत का
छोड़ो आमंत्रण
मीत का-प्रीत का ।

यक-ब-यक लौटे
बादल प्रीत के
आते तो हैं
हमारी प्रीत की
भरने साख
देर रात जाग जाग
अर्थाते हम उसको
दिखती छवियां
लेती नहीं आकार
भोर सुहानी
करे मनमानी
तृण दल ऊंचे
आंसू कातर
मान औसकण अपने तन
अपना मन
बांधे रखता
आस पुरातन !

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