गुरुवार, अप्रैल 10, 2014

मुझे कविता लिखनी नहीं आई

तुम नहीं पढ़्ते
मेरी कविताएं
मुझे पता है
मेरी कविताओं में
होता नहीं तुम्हारा 
मनवांछित कुछ भी 
जो उतार सके
तुम्हारी आंखों मे
लाल डोरे ढलती रात में।

मेरी कविताओं में
न जाने क्यूं
हर बार उतर आता है
कच्ची बस्ती वाला
मुट्ठियां भींचता
धाए-अघाए
हक भक्षियों पर
सवाल दर सवाल
उछालता नत्थू
जो तुम्हें कभी नहीं भाया ।



तुम्हें मेरी कविताएं
हमेशा लगती हैं
बहुत बोर और उबाऊ
क्यॊ कि उन में नहीं होते
कजरारे-नशीले नैन
पायल की झंकार
गोरे गाल
मस्तानी चाल
लाल-गुलाबी होंठ
गालों पर लटकती
लम्बी-काली जुल्फ़ें
तुम्हारे मुताबिक
इनके बिना भी साला
होती है क्या कोई कविता ?

माफ़ करना भाई
मुझे अब तक
तुम्हारे पसन्द की
कविता लिखनी नहीं आई !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें